सारी दुनिया से भटककर यहीं आ जाऊंगा,
मैं तेरा ये शहर कभी नहीं छोड़ पाऊंगा.
मस्तमौला आगाज़ बचपन का हुआ यहीं पे
यहीं जवानी के पहले सपने को मचलते भी देखा,
हँसी-ठहाकों ने अपना कभी डेरा जमाया यहाँ
यहीं सारी हसरतों को फिर जलते भी देखा.
चाहा था जिसे दिल से, उसे यहीं पर खोया
ना था जो मेरा कभी, उसकी ख़ातिर कितना रोया
मेरे आँसू तक ने हरदम धिक्कारा मुझको,
कैसे इन सबसे कभी नाता तोड़ पाऊंगा!
सारी दुनिया से भटककर यहीं आ जाऊंगा...
इसी जगह पे किसी ने वादा किया साथ देने का
तमन्नाओं ने महसूस की थी यहीं पर अपनी उठान,
यहीं पर हवाओं ने फिर रुख़ बदलना किया शुरू
ज़िन्दगी के सफ़र में यहीं देखी मनचली ढलान.
लोग सारे अपने क्यों पराए दिखने लगे हैं
रिश्ते वे जज़्बात के क्यों मोल बिकने लगे हैं
दिल मेरा रह- रहकर बेज़ार हुआ जाता है,
कैसे इन मुश्किलों से कभी मुँह मोड़ पाऊंगा!
सारी दुनिया से भटककर यहीं आ जाऊंगा...
जहाँ हम दोस्तो की जमा करती थी महफ़िल
वही चौराहा आज कितना सूना हो गया है,
यही वो मक़ाम है जहाँ हमने हार ना मानी कभी
आज किसी की आह का वही नमूना हो गया है.
हर कहीं यहाँ फिर भी अपना प्यार रहेगा
टुकड़ों में वो आँखों का सपना बरक़रार रहेगा
जीवन के नए आयाम को कभी तो सुकून मिले,
तभी इन रास्तों को नए रास्ते से जोड़ पाऊंगा.
सारी दुनिया से भटककर यहीं आ जाऊंगा,
मैं तेरा ये शहर कभी नहीं छोड़ पाऊंगा.***
- ©अमिय प्रसून मल्लिक
1 टिप्पणी:
उम्दा !
एक टिप्पणी भेजें