यूँ तो
मैं कह सकता था
और भी बहुत कुछ तुम पर।
जाने कितनी ऐसी बातें
जो मैं
ख़ुद से भी
कभी दुबारा नहीं कर पाया,
और उन्हें मैंने
जब अपनी कविताओं में क़ैद करना चाहा,
कहो, कैसे
वे तुम पर लिखी गयीं!
जो मैं
ख़ुद से भी
कभी दुबारा नहीं कर पाया,
और उन्हें मैंने
जब अपनी कविताओं में क़ैद करना चाहा,
कहो, कैसे
वे तुम पर लिखी गयीं!
तुम पर
कुछ न लिखना भी
मेरी कविताओं का एक अनसुलझा मर्म था,
कि कुछ न लिखने के लिए
मुझे 'तुम' ही मिली।
कुछ न लिखना भी
मेरी कविताओं का एक अनसुलझा मर्म था,
कि कुछ न लिखने के लिए
मुझे 'तुम' ही मिली।
तो फिर
मेरे 'लिखने' की अपनी त्रासदी नहीं है
कि मेरी सारी कविताएँ
'तुम' पर लिखी जा रही हैं!***
मेरे 'लिखने' की अपनी त्रासदी नहीं है
कि मेरी सारी कविताएँ
'तुम' पर लिखी जा रही हैं!***
- ©अमिय प्रसून मल्लिक
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