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मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

*** प्रेम के अनबोए बीज ***



...और मुझे लगा
मैंने प्रेम को बेचा कभी,
कभी औने- पौने दामों में खरीदा है।
बेहिसाब अनमनी शर्तों की जिस मंडी में
एहसासों को संभालकर
मैं जिस तरह चीखता रहा
वहीं कभी मेरा प्रेम भी आकुल रहा
सबसे महँगा बिक जाने के लिए।
जिस तरह जुती हुई धूसर मिट्टियों में
सैकड़ों कीड़े यकायक उभर आते हैं
उचाट जीवन- से मिलनेवाली
मेरी हज़ारों बेबसियाँ रेंग रही थीं
और मैंने किसी के 'साथ' का कुरेदना
हर तरह से क़बूल किया,
मुझे लगा फिर
घाटे की इस खेतीबारी में
मैं जीने का हर रसायन समझने लगा हूँ।
तुम्हारे अनसुलझे इरादों में मैंने तब
तुम्हारी कोई बेचैन प्यास देखी थी
और किसी मुक़म्मल रूप को फिर न पाकर
तुमसे ही अहम की आँच ले
मैंने ऊसर ज़मीन पर उगे
प्रेम के अनाज को अब पका लेना मंज़ूर किया।
मैं पसीने की किसी मादक गंध में डूबा हुआ
अपनी धमनियों को समझा लेना चाहता था
जहाँ प्रेम है ही नहीं
उधर सिसककर कुछ गुनगुनाने से
कौन- सी कभी उन्मत्त हवाएँ चलेंगी,
सो, ज़िन्दगी के खेत जोतते हुए
बेनामी ज़मीन पर ही
कितने ही गीत लिखे थे प्रेम पर
हाँ, मेरा नादान प्रेम
इन असंख्य आशंकाओं में
भरसक कहीं अनगाया ही रह गया।
आज जब दुनिया
तुम्हारी अदाओं में उतावली हो उठी है
मैं वहीं से फिर जगकर
अपने अंदर तुम्हारे नये ख़याल बोता हूँ
और ज़िन्दगी की रुसवाइयों से करके हर सामना
फिर तुम्हारी अंजान बेवफ़ाई उगाता हूँ
मैं प्रेम के खेत में
शायद इक उलझा हुआ हताश किसान हो गया हूँ।****

                     -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

*** जब महकने लगी तुम भी ***



तुम सुर्ख़ फूल- सी थी
जब मैंने महकना शुरू किया
मेरे रोम- रोम में तुम
फिर किसी ख़ुश्बू- सी आ बसी।
मैंने ख़्वाबों की दरख़्त पे
कभी बेसबब तुम्हारी यादें सहेजकर रख दीं
कभी मन ने चाहा
तो तुम्हारी पूरी दुनिया
अलसायी सुबह की चाय की प्याली में उतार ली,
इस तरह भी कई दफ़े
मैंने प्रेम को बूँद- बूँद गिरते- संभलते ख़ामोश पाया।
तुम्हारे नर्म- से एहसासों से लिपटकर
जितना समझना चाहा प्यार को,
उलझता गया मैं और
प्यार से पटी पड़ी चादर की
हज़ारों मदहोश सिलवटों में
तब जी गया
मैं फिर प्रेम की तमाम शर्तों को
प्रेम का ही नैसर्गिक हक़ मानके।
लिखकर मिटा देने से भी कई बार
योंकि कई कविताएँ बनीं
सो, कई बार मैंने
तुम्हारी बातों को इनमें लिख देना चाहा,
चाहा यूँ भी तब
तुम्हारी सर्द यादों का
इन हवाओं में
फिर से कोई महकता एहसास फैल जाए
पर तुम आ तो जाती यूँ ही
तब भी छलककर मेरी कविताओं में
मैं कुछ भी जब नहीं लिख रहा होता हूँ।
मैंने हज़ारों ख़त तुम्हें
इन खामोशियों में भी फिर बराबर लिखे,
तुमसे न मिल पाने की
अंजान- अबूझ पहेलियों को और जिया अकसर
जो बना मगर सबसे अहम मुझमें
वो मेरा सबसे आख़िरी ख़त है
जो मैं तुम्हें लिखकर अब कहीं छुपा जाना चाहता हूँ।***

               -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

*** कहा होता 'गर... ***



उसने कहा तुमसे,
लगता है,
हर कोई मुझे छोड़कर चला जाएगा एक दिन,
और तुमने कहा,
ऐसा कभी नहीं हो सकता,
ऐसा भी होता है भला कहीं,
तुम नहीं गयी
सो पास ही रही वहाँ।
मैंने कुछ नहीं कहा,
मुझे भी ऐसा कुछ लग सकता है कभी,
तुम समझ नहीं पायी
और
मैं दूर खड़ा सब्र से देखता रहा
तुम मेरे पास नहीं थी।
कहना 'गर मुझे आता
बेशक़ कहता
बहुत कुछ पहले भी फिर।***

               -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

*** कोलकाता से लौटकर ***


तुम्हारी उदास आँखों में
दर्द को कभी तबीयत से महसूस किया मैंने,
तुम धुएँ में भभककर उठनेवाली
आग सरीखी
मेरी ख़्वाहिशों की
किसी पुरानी याद- सी जब चीखने लगी
मैं तब भी
तुम्हारे प्यार के भरम को सीने से लगाए,
शहर दर शहर भटकता रहा
तुम भूल गयी,
तुमने मौन वायदों का एक संसार रचा था मुझमें
और मुझसे भी ली थीं कभी न जुदा होने की क़समें
मैं उन्हें निभाने को बेचैन
फिर ख़ुद से ही कहीं दूर निकल गया।
क्योंकि मुझे भटकना मंज़ूर था
मैं दर्द को पहलुओं में समेटे
तुम्हारे शहर कोलकाता की अंधी औ' वीरान
सड़कें नापने लगा।
मुझे लगा,
प्रेम यहीं पर कहीं
खिलखिलाता हुआ फिर से जवाँ होगा
और मेरी सर्द शामों की उदास उलझनों में
तुम्हारी कोई नयी मौजूदगी होगी,
मगर, मैं चूक गया।
मैंने कालीघाट की भक्तों की लगी लंबी कतार में
कई बार बड़ी- सी तेज़ आँखों में झाँकना चाहा,
प्रेम में फिर से तिरस्कृत होने का शाप लिये
मैं वहीं सुर्ख़ लाल रंगों में लिपटी बीसियों नवविवाहिताओं का अकेला साक्ष्य बनता रहा
और निरा अकेला वहाँ
मेरा प्यार धर्म के साए में धधकता रहा,
तुम तब भी नहीं आ सकी।
मैं भूल गया जूही,
प्यार पाने की हज़ारों घात लगायी हुई छुपी शर्तों को
मुझे हर चौक पे
बस तुम्हारी रूहानी बेवफ़ाई सहेजनी थी
सो, मुझे प्यार लफ़्ज़ पे भी
रश्क़ होना क़बूल हो गया।
मैं अब कहीं जाकर
इस मर्म को अपने अन्दर
बड़ी तबीयत से चस्प कर पाया हूँ
कि प्यार का कोई मुक़म्मल मज़हब नहीं होता,
और इश्क़ का रंग कहाँ कहीं सफ़ेद है
धड़कनें जो कभी धड़कती रहीं वहाँ अपनी रफ़्तार से
उस फ़रेबी जिस्म में
दिल का रंग क्यों काला होता गया है,
मुझे फिर ये अच्छे से स्वीकार्य हो गया
हाँ, मैं प्यार में ही था।
अब तुम दुनिया भर का प्यार लेकर
मेरे खुरदरे जेहन के कैनवास पे
नये रंग बिखेरने आयी हो
तो नहीं तय कर सका मैं
'गर तुम्हारा अपना कोई रंग मुक़म्मल है
मैं रंगविहीन होकर भी
तुम्हारे तथाकथित सफ़ेद रंग का
विकल्प सोचता हूँ
तुमसे अब कौन सा मुक़ाम रचूँ मैं
मेरे सारे अनुमान जहाँ
बिखरकर बेचैन- से हैं!
उन बेग़ैरत लफ़्ज़ों का भी
अब सो जाना ही जायज़ जान पड़ता है
जिन्हें नया सवेरा देखना है,
और जो चैन से सोने को राज़ी रहेंगे।
मैं दर्द को
अपने पहलुओं में समेटकर
क्यों न फिर तुम्हारे नये शहर को कूच करूँ,
मुझे शहर दर शहर भटकना हमेशा मंज़ूर जो था!***

                      -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

*** अगर है... ***




नशा जो है ही नहीं
अलसाए पड़े रहने से
होगा क्या!

मैं लौटकर
फिर शराब पिऊँगा
अब मुझे मृत्यु का ढोंग
अपने भीतर ही रचना है,
और उतार लेना है
मय के प्याले में
प्रेम का सारा हलाहल,
अगर वो है!***

       -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

*** क्यों...! ***



फिर सोचता हूँ
कविता ही लिखकर होगा क्या!
ढेर सारी बातें निकलकर आएँगी
और कई उलझनों में
लिपटे हुए से
हम हज़ारों शिकायतें करेंगे,
हमारा अहम तब
मुँह फेरकर भी
मगर पताका की तरह लहरा उठेगा।
प्रेम पर ही
क्या होगा तब कुछ लिख लेने से
या जी लेने के लिए
क्या कुछ नया मिल जाएगा अचानक!
क्यों कविताओं की बात पर
परेशानियों से
नये मायनों को खोजा जाए फिर,
जब प्रेम का हर पहलू
ख़ुद में पसरकर एक किस्सा बने!
क्यों,
क्यों कविताओं को और भी
समझा जाए निचोड़कर
जब हर कविता
उसकी बात में
कोई नयी कहानी ही लगने लगे! ***

            -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

*** ...फिर रंग कौन सा है! ***




तुमने कहा था
हम कहीं भी भटकने निकल पड़ेंगे
जब मुहब्बत का बाज़ार गर्म हो जाए
हम वफ़ाएँ भी करेंगे तो
शहर दर शहर ज़िन्दगी तलाशकर
और बिन बुलाए मेहमान की तरह
मैं तुम्हारे अपने शहर दिल्ली चला आया।

मुझे मेरे प्रेम का वैस्तार्य हर हाल में ढूँढना था।

मैंने ख़ुद में ही फिर तय कर लिया था,
जब ठिठुरती रात में
रिक्शेवाले के वाज़िब किराए मिलने की जगह
गाली- गलौज की उफ़नती आवाज़ मेरे कानों को चीरेगी
मैं तब ही प्रेम को धधकता महसूस करूंगा,
फिर मैं दोनों ही तरफ़ के
प्रेम में रुपयों की तनातनी को
जीने की जायज़ वजह बना लूँगा।

हाँ, तुम्हारे इस अजनबी- से अनमने शहर में
दिल पसीजने और धड़कनें लील लेने की
सैकड़ों कहानियाँ पहले भी सुन रखी थीं मैंने।

तुम्हें याद होगा
जब जी भरके मिर्ची देकर तुम्हें
दोपहर के खाने में तीखेपन का एहसास कराया था मैंने,
मैं देखना चाहता था
तुम्हारे चेहरे से निकले पसीने में बेबसी को
तब मैं ये समझने को तैयार नहीं था,
प्रेम मिलकर छूट जाने का दर्द क्या हर तरह से कहीं ज़्यादा भयावह होता है!

मिर्च के उस बेसब्र तीखेपन को
मैंने इसलिए तुम्हें अपने हाथों से खिलाना नहीं चाहा था
कि मैं कुछ चाहता था तुमसे,
मैं बदमाशियों में खिलखिला कर देखना चाहता था,
मेरे पास असंख्य एहसासों की जो एक वजह बन गयी थी
जो मैं चूक गया,
तब बिना कुछ चाहे तुमसे
बस, तुम्हें चाह लिया था मैंने।

मैं अनपची यादों से
फिर जाने क्या- क्या निकालने लगता हूँ,
कि तब तुम्हें मेरी
वे उंगलियां भी अच्छी लगी थीं
वे प्रेम से लैस लंबी थीं
और सजी हुईं तरतीब
उनके उन्हीं पोरों में
जहाँ अब तुम्हें मेरा रिसता हुआ दर्द दिखायी देता है
ये ज़ख़्म अब शब्दों से और भी गहरा हो गया है शायद,
सो, तुम्हें मेरी कविताएँ
इसलिए भी अच्छी नहीं लगेंगी।

ये ऐसी ही कुछ बाते हैं,
जो तुम्हारी तरह आती- जाती रहेंगी
पर जो तुम्हारे बेग़ैरत शहर में छूट गया तुमसे भी कहीं
जानता हूँ,
मैं वैसा कोई मुक़म्मल ठिकाना- सा भी नहीं रहा हूँ।

मधुलिका,
इसी शहर की फिर अंधी भीड़ में
किसी थके हुए रिक्शे पे बैठकर
सड़क दर सड़क तुम्हें ढूंढता हूँ
और बग़ैर किसी उन्माद औ' फ़साद के
उसी किराये के मकान में लौट आता हूँ
कि मुझे किराये की जगह का इल्म पता है,
जहाँ तुम्हारी यादों से पटी बिस्तर पे
मेरी बदहवास यादों का इक चश्मा रखा हुआ है
जिससे प्यार में जिये लम्हे
अकेला देखता हूँ,
और इस सच्चाई से फफक पड़ता हूँ,

कि मैं फिर प्रेम में पड़कर
और भी मटमैला होता चला गया हूँ।***


            -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

*** मुझे बताओ! ***



मेरी आँखें सूजती रहीं
इनमें लिपटी हज़ारों ख़्वाबों की
हर उम्मीद ढल रही थी,
मैं लेटी हुई फिर
इनके निर्वासन का कोई भव्य आयोजन सोचने लगी
कि प्रेम अब मटमैला हो चुका था
सारे वायदे धुँधले पड़ रहे थे
और जो बचा रह गया साबूत
उनमें रंजिशें, अहम और तुम्हारी बेवफ़ाई का कब्ज़ा बन गया।
तुम लौटकर भी तो नहीं आ पाए
मेरी शांत होती धड़कनों में
मैंने कितनी बार पुकारा तुम्हें
सुन सकते थे
अगर ज़िन्दगी छीन लेनेवाली कोशिशों के दरम्यान
तुम्हें मेरी सिसकती हुई
सारी ख़ामोश आवाज़ सुनाई देती।
तुम दुनिया को पर
हुंकारों पे हाथ उठाना सिखा रहे थे,
मैं उधड़ चुके जज़्बातों में
सिसकियों के रुग्ण पैबंद लगाने में खोयी रह गयी।
बदलते हुए तो
मैंने हवाओं का रुख़ भी देखा
और तुम्हारे आसपास सरसराते हुए
पीले पड़ चुके बेचैन पत्तों से ये गुमान सीखा-
फूलों के पास रहकर
उसकी उठान को महसूस करना
और अपनी छाँव में
इठलाकर सभी को बेपरवाह हिलोरें मारने देना
फिर बीसियों बार प्यार करके भी
मैं प्यार करने के
सही मर्म को नहीं समझ पायी
मुझे लगा था,
कि मैं प्यार में थी
और मैं ग़लत हो गयी
तुमने महज़ इनकार जताकर ही
एहसासों के वाज़िब फ़ासले को बता दिया।
अब जबकि प्यार
कहीं अहम के रूप में ढलकर
किसी रुग्ण होती ज़िन्दगी में
सब झुठला देनेवाला गुमान जी रहा है,
मान लेना तुम
सिर्फ़ तीन महीनों का तुम्हारी ज़िंदगी में
कभी न मिटनेवाला
एक बदनुमा दाग़ दिया है मैंने
मैं स्याह होती उम्मीदों को
मना लूँगी
क्योंकि जैसा और जितना हो
दर्द का बँट जाना शायद ज़रूरी है,
नहीं तो फिर
प्रेम की परिणीति से प्राप्य ही क्या है!***

            -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

*** ये भूख भी मिटा लो! ***



जब मैं
ज़रा भी भाव नहीं देती थी तुम्हें
तुम लुटे हुए थे,
चुन- चुनकर
प्रेम का दाना खा जाते थे
और सदियों की कोई भूख मिट जाती थी तुम्हारी
कि तुम्हारी भूख अहम थी।
अब तुम
जान- बूझकर बस भाव खाने लगे हो,
तुम्हारी तरह ही
भूख भी बदल गयी है तुम्हारी,
लो, मैं भाव देने लगी हूँ तुम्हें।***
            
          -©अमिय प्रसून मल्लिक.

*** जाकर लौट आना पड़ा ***




मैं कभी तैयार नहीं था,
तुमने जो फ़ैसला किया कि फ़ासला बनाया जाए
मैं प्रेम में तब भी विनाश चाह रहा था
मुझे पागल होती आंधियों में उठनेवाली
उद्दंड हवाओं का शोक मनाना था
पर मैं तेज़ होती पुरबाई के तिलिस्म में खोया रहा।

तुम नहीं आयी प्रियंका पाण्डेय
तुम्हारी बेवफ़ाई से
पर कोलकाता की हर गली बजबजाती रही!

मुझे लगा,
'रवीन्द्र सदन' के पास प्रेम का कोई संगीत बजेगा,
तुमने कहा था, वहाँ थियेटर चलता है अक्सर
और हम वहीं साथ में मिलेंगे,
मैं इस बार भी ग़लत हो गया
फिर वहीं बैठकर अकेले
तुमपर चलनेवाले किसी थियेटर की ज़िन्दा 'स्क्रिप्ट' सोचने लगा।
मुझे ख़याल नहीं रहा
कि ये तुम्हारे सिद्धांतों का अपना शहर है,
और यहाँ तुमसे चूककर हर बात बेईमानी की बात है,
तब दर्शक- दीर्घा में बैठनेवाले संभ्रातों की चमचमाती असंख्य नयी कारों की उन्मादी भीड़ से ही,
मैंने आदमी से आदमी के ठुकरा दिए जाने के नियम सीखे
ये महज़ इनकार की बात नहीं थी,
तुम पर बेवक़्त लिखी जा रही कहानियों का यहीं से आरम्भ होना तय था।

मैं तो तुम्हारे शहर को
वफ़ाओं के किले के रूप में देखना चाहता था,
मुझे हीर- राँझा के सपनों की यहाँ पर कतरनें ही मिलीं
मैं कैसे समझ पाता
कि महानगर का वैस्तार्य प्रेम की मादक गंध को भी चीर देता है,
हाँ, यहाँ जीवन से परे नाटक चल रहे थे
और उधर मैं सड़क दर सड़क तुम्हारी अंधी जुस्तजू में
तुम्हारे नाम पर ही किसी मोहल्ले का नाम सुन रहा था।

घर के लोग कहते रहे,
'गर प्यार किया ही नहीं कभी तो
तुम्हारे शहर से बार- बार रूठकर होगा क्या
रहेंगी कहाँ तुमसे मिलने वाली वो रुसवाइयाँ,
हज़ार चुम्बनों से मेरे ज़ेहन में,
और जो तुमने मेरी उलझी हुई नसों में कभी
बड़ी तबीयत से 'इंजेक्ट' कर रखी थीं!
पर काग़ज़ के कुछ टुकड़ों और मेरे आँसुओं से धुँधली पड़ जानेवाली उन इबारतों को लेकर
तुमपे कोई चलचित्र बनाना मेरा मक़सद बन गया।

मुझे रिश्तों की बातें बेईमानी लगने लगीं,
तुम और तुम्हारे अप्रत्याशित ओहदों पर मुझे
कितने ही आख्यान देने के खुले निमंत्रण मिले,
मैं तुम्हारे कोलकाता से लौटकर ही तब
शहर में खुलेआम बिकनेवाली वफ़ाओं का नया ख़ाका खींच पाया,
सीख गया तब मैं
शहर और उसके बीचोंबीच उठनेवाले
दमघोंटू धुएँ के उफनते हुए मर्म को।

मैं तब भी सजदे में था
तुम्हारी बेवफ़ाई पर प्रियंका,
अपनी ग़ैरत को गिरवी रखकर भी
जब तुम्हारा शहर एक किनारे अड़ गया था,
मैं लफ़्ज़ों से विध्वंस को आमादा था!
तुम क्यों न फिर भीड़ का बाज़ार गर्म रखो
तुम्हारे शहर की तंग गलियों से लौटकर जब तुम्हारे अपने ही
बेवफ़ाई पर उकेरी हज़ारों नज़्म निगलेंगे!

और इसी तरह
सिसककर ऊँघते हुए
वफ़ाओं की वाज़िब क़ीमत मैंने तुम्हारे शहर में ही जानी।***


                   ✍© अमिय प्रसून मल्लिक.

*** तुझे कहूँ कि तेरे शहर को...! ***



तुम्हारी अल्हड़ जुस्तजू में झुम्पा गांगुली,
मैं कॉलेज स्ट्रीट की सैकड़ों किताबें छान आया,
वहाँ छोटी- बड़ी नालियों से बजबजाती हुई,
हर सड़क पे बिकनेवाले अड़हुल के सुर्ख रंगों पर
मैंने फिर विरह की नयी कविताएँ लिखनी चाहीं,
उनमें मुझे प्रेम के रिसते ख़ून की गंध मिली।
ये कैसी अजीब गंध थी,
जिससे मिलकर ही
मैं मिल पाया
तुम्हारी बेपरवाही के कई सारे ज़िन्दा सबूतों से!

तुम नहीं आयी शहर के किसी व्यस्त बाज़ार में
जहाँ घूमता रहा मैं बेचैन
तुम्हारी नर्म यादों की बेसब्र
ख़रीदारी में,
मैं अकेला ही तुम्हारे कोलकाता में
जाने क्यों फिर भटकता फिरता रहा इस बार भी!

उलझा हुआ था जब
मैं सिगरेट के उन्मादी कशों में
तुम्हारे धुआँ- धुआँ शहर की तरह,
तुम्हारी दोस्त रूना हसन मुझे बड़े से पुल पर सिसकती मिली,
उसने क्या नहीं खोया उसके अपने शहर में
पर मिला उसे भी नहीं,
वो जिसपर सब लुटाकर
वहीं अपना नया शहर बसाना चाहती थी!

मैं सुन रहा था,
कि तुम ख़ुद बेवफ़ाओं के इस शहर में कहीं बुत तो नहीं बन गयी,
कैसे इन फ़िज़ाओं में साँस लेती हो तुम झुम्पा, कहो न?
तुम्हारी मुहब्बत की उम्मीद से ज़्यादा फिर मुझे
रूना हसन ने ही
तुम्हारी हिफ़ाज़ती के संभावित कशीदे सुनाए,
तब, जबकि वो ख़ुद टूटकर बिखरी हुई थी।

एक पूरी रात फिर अख़बार ओढ़कर ही
मैं प्लेटफार्म पर भूखा सोया रहा,
प्यास नहीं लगी एक बार भी मुझे,
मेरी ज़ेब में पैसे थे,
बैग में तुम्हारे शहर के मशहूर छह बड़े पके अमरूद
लगातार उल्टियों जैसी दुर्गंध मारते रहे थे,
और फिर मैं लौट आया!

बहुत सुन रखा था मैंने,
तुम्हारे बड़े से शहर में मिलनेवाली
सुनहरी और पागल उम्मीदों के बाज़ार को
मैं वहाँ भी तो गया
कई दफ़े प्रेम में मिलनेवाले बुख़ार से तिलमिलाकर,
और विरह से उपजी वर्जनाओं को लाँघकर
पर इतनी छोटी बात नहीं समझ सका-
मेरी किसी ख़रीदारी में
भौतिकता का वैसा सामर्थ्य नहीं था,
जो मुझे- तुम्हें एहसासों के हिसाब- क़िताब का
पक्की रसीद- सा कोई आश्वासन ला दे,
और, मुझे कहीं अपनी ज़मीन पर लौट जाना भला- सा जान पड़ा, झुम्पा!

मैं चला आया, तुम्हारे शहर में
अपने प्यार के सारे अधूरे अरमान छोड़कर,
मैं तब भी चाहता रहा
अगर तुमने सोचकर कभी की हो
तो तुम्हारी बेवफ़ाई पर
कोई मज़मून या दायरे तय कर लूँ,
मुझे तुम्हारे साथ में मिलनेवाले सहारे के लिए
रिश्तों के ज़हर को उगलना हर तरह से जायज़- सा जो लगा।

तुम्हें पढ़ते हुए मैंने फिर भोर की तेज़ धूप देखी,
जिस चिलचिलाती उष्णता में
प्रेम की कोई गन्ध यकायक किसी सीने में बहककर फैलती है,
ऐसे ही किसी स्याह रात में भी
तुममें उलझा हुआ मेरा मन अजनबी हो जाता है
और नीन्द से निकलने वाले
लाचार सपने
सिसककर मन की गुफाओं में अब सो जाते हैं
मैं कुहरे और धुंध में कंपकंपाकर भी फिर
तुमपर ही बेकार सी कविताएँ लिखने लग जाता हूँ,

तो तुम क्यों नहीं मानती, झुम्पा गांगुली
बेवफ़ाओं के शहर में
तुम कम से कम आधी बेवफ़ा तो हो गयी हो!***


                      ✍© अमिय प्रसून मल्लिक.

*** मैं क्या आज़माती...! ***



मेरे शब्द सारे
और उलझ गए
तुम पर लिखी जा रही
हज़ारों कविताओं का जब तुम्हारे हाथों ही
कहीं असह्य विमोचन होना था।

मैं प्रेम में रही,
और वहीं रचती रही
एहसासों के इस उफनते समन्दर को
जो मेरे ही अन्दर
सब कुछ कुचल देने को आमादा था।
मैं प्रेम में
फिर तुम पर लिखी कई किताबों का
तब मर्म समझने लगी,
कि जो राख होकर भी सुलग उठे अचानक
उसी में बस कोई जान होती है।

मेरा प्यार तो अभी- अभी जवाँ हुआ था,
और इसकी मौजूँ अदाओं पर
तय ही थे
जाने कितने सवाल अभी उमड़ने वाले
पर अचानक टूटनेवाली मेरी बीमार नीन्द की तरह
ये अधूरी ख़्वाहिश भी बेचैन हो चली थी,
कुछ अलग नया आज़माने के लिए।

मुझे तब लगा
बेकार है
हर बार कहीं दिल का लगाना
कुछ होता नहीं है
रूठ- रूठकर मान लेने से,
सो प्रेम के अघोषित चुनाव में
मैंने ख़ुद ही एक फ़ासला चुन लिया।

प्रेम में मैं
ख़ुद को अब मिटा देना चाहती थी
सो,
इसी में गहरे कूद गयी मैं,
बेकार- सी गहरी साँस रोककर
इसी तरह कुछ
इक नयी जगह पर जीने के लिए।***

               
          © अमिय प्रसून मल्लिक.

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

*** ...फिर सवाल अहम हुए ***


उसने प्यार को
बहुत क़रीब से देखा
उसके 'होने', न 'होने' पर
तभी कई सवालों को मंज़ूर किया।

उसने कई बार
प्यार में रोज़ लिखी जाने वाली
नयी कविताओं को समझना चाहा
और मुलाक़ात के सारे वायदों को
मन की डायरी में
चाहा शिद्दत से उकेरना,
पर हज़ारों अनसुलझे लफ़्ज़ों से सजे
उसे बस मायूसी के खुले लिफ़ाफ़े ही मिले।

वो प्रेम करके ही
इसमें मिलनेवाले किसी दर्द का ख़ाका
किसी के साथ खींच पायी,
और जो किसी के वश में कभी न हो पाया
उस अजीब एहसास में मिलकर अकेली इतरायी भी।

वो प्रेम- दरिया के
उस किनारे पर अब खड़ी थी
जहाँ मुक़म्मल रास्तों का
हर सवाल बेईमानी बन जाता है।
वो तो झूठ में भी
किसी नैसर्गिक रिश्ते की बीज बो चुकी थी
और समय के गर्भ से
कथित प्यार की कोई निशानी जनने की
सैकड़ों उम्मीद लिये फिर रो पड़ती थी।

उसने प्रेम में
असंख्य असह्य आँसू लिये
समय की क़ैद होती अजनबी आयतों में
कभी न फिर प्रेम करने की
नयी- नयी आज इबारतें जोड़ दी हैं।***

                  - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** और जो बदल गया ***



तुम जब शहर की ओर जा रही थी
मैं वहीं
अपने घर में बेसुध पड़ा रहा।

मैं रहा मशगूल,
मुझे मेरी ख़्वाहिशें समेटनी थीं
और एहसासों के तूफ़ान से
निकाल के
जी लेनी थीं कई अबूझ ज़िन्दगियाँ।
मैं डूबा हुआ था,
तब भी उन्हीं वायदों के भरम में
जिनसे मेरी साँसों में
कभी कोई ज़िन्दा रवानी तुमने भरी थी।

यूँ तो
तुम्हें लौटकर आ जाना था
अपने ही किसी मुक़म्मल पहलू में
कि भूल जाना था फिर
कभी न छूटने वाले बेपरवाह ख़यालों को,
प्रेम- बगिया की गढ़ी चहारदीवारी को
जहाँ मेरा, तुम्हारा, हर किसी का
प्रेम, 'गर हो
रोज़ ही भभककर जवाँ होता है।

तुम फिर,
जाने क्यों आकर भी नहीं आ पायी
और मैं ठगा- सा
सारी संभावनाओं को टटोलने में रह गया,
मैं उलझ गया तब
प्रेम और प्रेम में मिलनेवाली उम्मीदों के
वैसे ही किसी अजनबी और उन्मादी नये शहर में
और मुझे सब कुछ भुला दिया जाना
हर तरह से जायज़ लगने लगा।

कुछ भी
बदल जाने की सारी नाउम्मीदी के बीच,
हो गया फिर हर सवाल सशंकित,
बदल गया हूँ मैं, तुम
या कि आज
वो झूठा समय बदल गया है!***

                 - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** तुम ***



मैं जब भी गुज़रूँगा
तेरे घर की राह से
ना कोई आवाज़ दूंगा
ना मेरी कोई आह निकलेगी वहाँ
डरता है मेरा मन
आना पड़ेगा मेरे मूक बुलावे पे
तुम्हें बेताबी के साथ !

तेरी चारदीवारी के भीतर
महसूस कर तेरी छटपटाहट ही
सुन ली तुमने मेरी पुकार-
ऐसा मैं समझ लूँगा
चाहे तुम्हारी ये छटपटाहट
पनपी हो उच्छृंखलता की आड़ में
पर मैं तेरी हर कमज़ोरी
समझने का गुमान रखता हूँ !

ना तेरी बंद खिड़की से
और ना ही कभी मन के दरवाज़े से
दिखेगा तुम्हें मेरा ख़ामोश चेहरा
क्योंकि देखने तो वहाँ हमेशा
जाऊंगा मैं तुम्हें
और खोलोगी जिस दिन तुम
अंतर्मन की आँखें अपनी
दिखेगा तुम्हें बस वही चेहरा
जो होगा तेरे ह्रदय के हर पन्ने पर
मौजूद अपनी चमक के साथ
और न जाने किस-किस कण में फिर
पाओगी तुम तस्वीर उसकी !

ख़ुशकिस्मती ना समझना तुम इसे
उस नायाब मायूस चहरे की
मैं माँग लूँगा दुआएं उस चहरे के लिए
जिसे देखने के लिए तस्वीर अपनी
नसीब ना हुआ कोई दर्पण !

फिर, मैं ही आऊंगा
और आता ही रहूंगा
उस राह, सड़क, मोड़, चौराहे, हर जगह पर
तुम तब रहो, ना रहो
तेरी हर छाप कमोबेश तो वहाँ
तेरे 'होने' का मुझे
सुखद भरम दिलायेगी
और मेरा दीवाना मन
चूम लेगा उस धूल कण को ही
पडे होंगे तेरे पैर जिस पर
इक अनजान बेरहमी के साथ !

मान लूँगा तब मैं
कि तुम रहो, ना रहो
तेरी मौजूदगी हमेशा
मेरे पहलू में सिमटी है-
यही इक उम्मीद मन को सुकून देगी
क्योंकि प्यार तो तुम्हारा
हमेशा बँट गया जाने कहाँ-कहाँ !***

            - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** जिसने सब ख़राब किया ***



वो बुरी नहीं थी,
मैंने उसे
जी भरके ख़राब बनाया।

उसने
प्रेम सरीखी किसी चीज़ से पहले
मुलाक़ात नहीं की थी।
मैंने उसे
ऐसे कितने ही रास्ते सुझाए।
कि वो इन पर चलने को
अपनी नयी आबोहवा से
सवाल करने लगी।

उसने तब उन मायनों को भी समझा,
जो आम भाषा में
हम और आप
नहीं समझ पाते हैं कभी।

वो समझने लगी थी फिर
कि उस पर
हज़ारों कविताएँ लिखी जा रही हैं।***

                - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** उन कविताओं का क्या...!***



सुनो न,
मैं आ गयी हूँ
फिर से पास तुम्हारे!

तुमने कहा था,
मैं भरसक नहीं लौटूँगी,
कि जब तक तुम शिद्दत से नहीं पुकारते,
मैंने तब कुछ और नहीं कहा था।

मैं जानती थी,
तुम नहीं समझोगे
तुमसे दूर
मेरे सीने में उठनेवाली बेचैनी को,
और कुछ न कर पाने की
उदास बेबसी को,
सो,
चुप हो जाना ही
तभी मुझे मेरे प्रेम का साक्ष्य लगा।

करो न अब प्यार
लौट तो आयी हूँ मैं फिर वहीं,
बाग़ वही हैं
फूल, कली, पत्ते, तितलियाँ, सड़क, रास्ते, ट्रेन,
मंज़िल सब वहीं हैं,
तुम और मैं भी तो अब वहीं हैं!

इक जो
दिख नहीं रहा कहीं
इन्हीं सबसे चुराए लफ़्ज़ों से
तुम्हारी उन नितान्त कविताओं का सिलसिला है,
जो तुम मुझपर अकसर लिखा करते हो।***

                       - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** यहीं लौट आऊँगा ***


सारी दुनिया से भटककर यहीं आ जाऊंगा,
मैं तेरा ये शहर कभी नहीं छोड़ पाऊंगा.


मस्तमौला आगाज़ बचपन का हुआ यहीं पे
यहीं जवानी के पहले सपने को मचलते भी देखा,
हँसी-ठहाकों ने अपना कभी डेरा जमाया यहाँ 
यहीं सारी हसरतों को फिर जलते भी देखा.


चाहा था जिसे दिल से, उसे यहीं पर खोया
ना था जो मेरा कभी, उसकी ख़ातिर कितना रोया
मेरे आँसू तक ने हरदम धिक्कारा मुझको,
कैसे इन सबसे कभी नाता तोड़ पाऊंगा!


सारी दुनिया से भटककर यहीं आ जाऊंगा...

इसी जगह पे किसी ने वादा किया साथ देने का
तमन्नाओं ने महसूस की थी यहीं पर अपनी उठान,
यहीं पर हवाओं ने फिर रुख़ बदलना किया शुरू
ज़िन्दगी के सफ़र में यहीं देखी मनचली ढलान.


लोग सारे अपने क्यों पराए दिखने लगे हैं
रिश्ते वे जज़्बात के क्यों मोल बिकने लगे हैं
दिल मेरा रह- रहकर बेज़ार हुआ जाता है,
कैसे इन मुश्किलों से कभी मुँह मोड़ पाऊंगा!


सारी दुनिया से भटककर यहीं आ जाऊंगा...

जहाँ हम दोस्तो की जमा करती थी महफ़िल
वही चौराहा आज कितना सूना हो गया है,
यही वो मक़ाम है जहाँ हमने हार ना मानी कभी
आज किसी की आह का वही नमूना हो गया है.


हर कहीं यहाँ फिर भी अपना प्यार रहेगा
टुकड़ों में वो आँखों का सपना बरक़रार रहेगा
जीवन के नए आयाम को कभी तो सुकून मिले,
तभी इन रास्तों को नए रास्ते से जोड़ पाऊंगा.


सारी दुनिया से भटककर यहीं आ जाऊंगा,
मैं तेरा ये शहर कभी नहीं छोड़ पाऊंगा.***

- ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** कुछ ऐसे हालात रहे ***



रात में ही
तुम पर लिखी जा सकती हैं
असंख्य कविताएँ।

जब
ये अंधेरा घना होगा
मेरे शब्द और हरे होते चले जाएँगे
शायद तभी तुम समझ सको
इनके कहने के
छुपे और जायज़ मायने को।

तुम फिर
अपनी सुबह के घोर उजाले में
दिन के लिखे
सारे ख़तों को बेहिसाब टटोलना
और करना दोहन
उनमें भी पनपी मेरी ख़ामोश कविताओं का।

हमेशा की तरह
मैं इसे भी
तुम्हारी कोई नयी बेरुख़ी मान लूंगा।
योंकि ऐसे हज़ारों ख़त
तुम तक
तो पहुँचे ही नहीं
जो प्यार से तुम पर लिखे गये थे।
और कविताओं का भी
कुछ ऐसा ही रहा हाल भरसक।***

               - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** है न ऐसा? ***



जब तक तुम 'तुम' थी,
मैं 'मैं' बना रहा।

जब मैं और तुम
'हम' बने,
हज़ारों नये सपने आ बसे।

पर जो सांसारिक प्रेम में सम्भाव्य था,
पहले कुछ ज़रूरतें आईं,
ख़ुद्दारी, चाहतें, शौक, उम्मीदें
सब भभक- भभककर फिर अपनी- अपनी जगह जगे
और जो नहीं होना था,
इन सारे अघोषित आंदोलनों में हमने
प्रेम को अनजाने ही
बेरहमी से शूली पर चढ़ा दिया।

हाँ,
दूर से आनेवाली कुछ आवाज़ें
अकसर हसीन होती हैं
नज़दीकियां जो
सिमट के सैकड़ों दमित भाव बन जाए,
हमारे ही
अहम के किले पर
वो फिर पताका- सा लहराने लगता है।***

                 - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** ...और मैं लिपटी रही ***


तेरी ग़ैरमौजूदगी में
कुछ ऐसी भी गुज़री हैं
मेरी कई सर्द ख़ामोश रातें
कि रुई के
बेपरवाह नर्म फाहों- सी
तेरे एहसास से ही मैं लिपटी रही।

जब पहली दफ़ा
तुम स्याह रात की सफ़ेद चाँदनी में
कभी बलखा के आए
मैं सहमती हुई अपने सारे ख़्वाब
सिरहाने लिए सोयी थी,
खोयी हुई थी मैं
तब तुम्हारी ही कोई ज़िन्दा जुस्तजू लेकर।

तुम आये
आकर मुझे हज़ारों रंगीन लम्हे दिये,
और मुहब्बत में डूबे
तुम्हारे दिलकश साथ को जिया।
तुमसे ही फिर
हज़ारों मौजूँ लफ़्ज़ माँगकर
मैं उधार की
कई कविताएँ लिखने लगी।

मुहब्बत ने कभी
तुम्हें छूकर क्या आज़माना चाहा
मैं तुम्हें
दूर तलक फिर कहीं ढूँढ नहीं पायी,
तुमने तो दुनिया को
अपनी नज़रों से देखने के रास्ते चुने,
और तुम चले गये
किसी लौटती पुरबाई की तरह,
मैं प्रेम में ठगी
वहीं अपनी दुनिया के निशान खोजती रही।

मैं मुहब्बत को
जी भरके जीना चाहती थी,
सो, तुमसे मिली
सारी वर्जनाएँ तोड़ देनी थीं मुझे,
पर मिल जाने की
सारी चाह मेरी रुसवा हो गयीं,
यूँकि तुमसे इतर,
तुम्हारी लगायी बंदिशें कभी भरम नहीं बनीं। ***
                - ©अमिय प्रसून मल्लिक

***तुम पर 'गर न लिखी जाए ***



ये सारी कविताएँ
कैसे
कोई कविता हुई!

जब तक तुम
आकर इन्हें पढ़ नहीं लेतीं
और फिर कमोबेश
मेरे बेबुनियाद साथ की तरह
इनमें कोई
वाज़िब कमी नहीं निकाल देतीं!

कहो,
ये कौन सी कविता हुई
जो 'तुम' पर लिखी ही नहीं गयी,
और
जो कुछ लिखी गयीं
वो तुम्हें छूकर अपने मायने नहीं दिखा पाए!

तुमसे इतर,
कैसे किसी ने कभी
कोई अपनी कविता लिखी हो भला! ***

             - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** जब उसे देखा था...***



उसके हाथ पे
'अमोघा' लिखा हुआ देखा।

मैं तब सोशल मीडिया पर
नयी- नयी इबारतें गढ़ने में लगा था
मुझे रोज़ नये वाक़ये ख़ुद मिल जाते थे
और मैं शब्दों का तारतम्य बुनने लगता।
फिर क्या हुआ अचानक,
मुझे 'हाथ' की इक तस्वीर दिखी
जिस पर 'अमोघा' लिखा हुआ था
और मैं पशोपेश में पड़ गया।

मैं इसका अर्थ ढूँढने में
बड़ा ही बेचैन- सा रहने लगा,
मुझे कभी- कभी
इस नाम में उस शख़्स की नैसर्गिक चाहतों का दमन दिखा
और कभी
उस शय के अचूक- अपराजित होने का सिलसिला मिला,
मैं इसके अर्थ में फिर और उलझता- डूबता गया।

उसकी वो 'अमोघा' पर मुझे नहीं दिखी,
ऐसा अजीब विषय पर मैंने पहले कभी नहीं गढ़ा था,
नहीं दिखा कभी
उसे अपने ज़ेहन में उकेरने वाले का कोई ग़म या उसकी कोई क्षति,
यों कि
वो रोज़- रोज़ हर जगह कहाँ आ पाती है,
और उसका यकायक चले जाना भी,
उसे अपनी इबारत में ज़िन्दा रखनेवाले के लिए
किसी युग का कभी अवसान नहीं रहा है।

उस शख़्स की
बेलौस दिनचर्या में भी
इस अबूझ नाम का कुछ यों चस्प होना सम्भाव्य रहा है,
कि
उसपर कुछ नहीं कहना भी
ख़ुद में इसका एक पूरा अमिट संसार है।

वो हँसता है, खिलखिलाता है,
घाट पे, बाज़ार में, शहर में, दुकान में, सड़क, फूल, तितली, टैटू में,
जब बिना किसी आस के,
उसके आस- पास ही पूरे वजूद में
इस 'अमोघा' का अपना संसार आ बसता है,
और बिना किसी शिकायत के अकेले
वो उसपर सैकड़ों ख़ामोशी की आयतें पढ़ने लगता है।

'अमोघा' ने उसे जो दिया
वह उसे अपने अन्दर सहेज कर रख चुका है।

मैंने देखा,
उसने अपने हाथ पे
बस एक नाम 'अमोघा' गुदवा रखा है।***

                  - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** क्या लिखूँ तुम पर... ***



जाने क्यों
आज तुम पर
कोई कविता नहीं लिख सकी!

जब भी
तुम पर कुछ कहना चाहा,
या चाहा लिखना
कई अनकही बातें,
ढेरों अनसुलझी कहानियाँ
चलती रहीं
पूरे दिन ही मेरे ज़ेहन औ' ख़यालों में।

कुछ नहीं सूझना भी
तुमपर लिखी जानेवाली
तब कोई कविता- सी लगती है,
फिर सोचती हूँ,
जो कुछ लिखूंगी तुम्हें देखकर,
क्या वो
कोई नयी कविता होगी मेरी!***

              - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** आ क्यों नहीं जाते! ***



मैं अब
कौन- सी कविता लिखूँ,
और तुम पर कुछ कहने को
कहाँ से शब्द टटोलूँ,
'गर तुम
आसपास मेरे मौजूद ही नहीं
और तुम्हारी बेपरवाही
कहीं बेसबब जश्न मना रही हो!

कहो,
तुम मेरे लिए ही,
लौट क्यों नहीं आते अब
अपने नाम- सी
किसी पुरबाई की तरह,
झूमते हुए,
फिर मैं गुज़रती हुई
वहीं कहीं तुम्हारी बाट जोह लूँगी।

तुमसे मिली दूरियों ने
हर तरह से तो
मुझे बेबाक आज़माया है,
योंकि मैंने भी
फिर सब क़रीब से देखा,
जिसकी
कभी कोई तलाश की थी,
वो सारे लम्हे
बस 'तुम' ही में तो हैं।***

          - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** तुम ही पर... ***



यूँ तो
मैं कह सकता था
और भी बहुत कुछ तुम पर।

जाने कितनी ऐसी बातें
जो मैं
ख़ुद से भी
कभी दुबारा नहीं कर पाया,
और उन्हें मैंने
जब अपनी कविताओं में क़ैद करना चाहा,
कहो, कैसे
वे तुम पर लिखी गयीं!

तुम पर
कुछ न लिखना भी
मेरी कविताओं का एक अनसुलझा मर्म था,
कि कुछ न लिखने के लिए
मुझे 'तुम' ही मिली।

तो फिर
मेरे 'लिखने' की अपनी त्रासदी नहीं है
कि मेरी सारी कविताएँ
'तुम' पर लिखी जा रही हैं!***

           - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** 'गर तुम आ सको ***



आओ,
इस तरह से आना
कि आकर न जा सको फिर!

तुमने आने का कहा था
तो
मैं इंतज़ार में रहा
कि तुम नहीं आती तो मैं क्या करता,
करता फूल, पत्ती, हवा, जुगनू से बात
फिर रात को
और घना होने को कहता।

कहता सिसककर
कि दर्द जब तक हरा न हो जाए
प्रेम परवान नहीं चढ़ता
और
दर्द के लौट आने की बात फिर कहकर
ख़ुद से ख़ुद को समझा लेता,
कि
दर्द हो, न हो अन्दर
कुछ लहू- सी बातों का प्रवाह होना चाहिए ज़रूर। ***
               - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** भूलना कहाँ होता...***



तुम्हें कभी याद नहीं किया
कि भूल जाने पर
भरसक ऐसे प्रयोग किये जा सकते थे।

जिन्हें भूल जाने का भय है
वो याद करें
और निभाए अपनी दिनचर्या,
मेरा मन किसी डर के मुग़ालते में नहीं रहता,
फिर क्यों मैं
याद कर लेने के भरम में जियूँ!

कल रात भी
तुम पर फिर एक कविता लिखी है,
पूरी रात अकेला जगकर।

यों मुनासिब है मेरे लिए
याद किये जाने से
कहीं बेहतर
किसी को अपने लफ़्ज़ों में बांध लेना।***

           - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** और मुझे लगता है... ***




तुम्हें पढ़ते हुए
अपने ही शहर से
मैं जाने कब बाहर निकल गया!

जब तक वहाँ रहा,
तुम्हारी यादों के घने साए में,
और मैं प्यार में
इतराकर जीता रहा,
फिर तुमसे दूर हो जाने की
तुमने ही तो
मुझे सैकड़ों फ़िज़ूल वजहें दे दीं।

कहो न,
तुमने अकेले में तब क्या कहा था,
जिसकी अकुलाहट को
आज मैं अकेला ही हर कहीं
हर हाल में जी रहा हूँ?
हाँ, मैं रात के
सुनहरे होते सारे ज़ख़्मों को जीता हूँ,
और तुम्हारी हिचकिचाती मौजूदगी को
मायूस होके भी मना लेता हूँ।

मुझे यक़ीन है,
तुम
कभी तो अचानक आओगी,
जिस तरह तुम्हारी आग मुझमें
रोज़ ही
यकायक भभककर उठती है।***

           - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** क्या लिख रहा हूँ! ***




डरता नहीं मन मेरा
आव्रजन के किसी नियम से
न मेरा प्रेम 
तथाकथित प्रशासन के किन्हीं सख्त उसूलों का
कभी ग़ुलाम ही रहा है।

सो, मैं आऊँगा!
मैं लौट आऊँगा,
हर हाट, गली, सड़क, चौराहे पर
तुम हो, न हो
पर तुम्हारी यादों के जहाँ
इक उम्र तक कभी तो चर्चे रहे हैं।

तुम कहती थी,
मैं बड़ा पक्के इरादे वाला रहा हूँ।
पर तुम्हें मैं कैसे बताऊँ
तुम्हें पा लेने के लिए
मैंने अपनी नाकामियों पर भी कभी झूठे कशीदे पढ़े हैं।
मुझे पता है
यों कि तुम्हें चाह लेने के बाद
फिर मैंने
कभी कुछ क्यों नहीं चाहा!

और अब,
बिना कुछ समझे ही
तुम्हारे ही छुपाए सारे लफ़्ज़ लेकर
ये मैं
कौन- सी कविता लिखने बैठ गया हूँ!***

         - ©अमिय प्रसून मल्लिक

*** फिर बचा क्या है...! ***



अब तेरी
कोई तस्वीर नज़र कहाँ आती,
और कहाँ
तुम्हारी यादों के आने का
कोई सिलसिला बचा हुआ है,
मैं जाने क्यों
तुमसे मिली दूरियों को
फिर भी गले लगाए बैठा हूँ!

यूँ कि तुम
शांत- सहमी- अकेली रातों में
मेरे
वही अनसुलझे लफ़्ज़ बन रहे हो,
और उन्हें
समझ लेने के उसी पुराने गुमान में
फिर रोज़
कोई नयी कविता लिखने बैठ जाता हूँ।

जानता हूँ मैं,
तुम अभी नहीं आओगी
पर तुम्हें पुकारने के
कम से कम,
मैं सिसककर सारे आयाम आज़मा तो लूँगा।

क्या मैं कहीं किसी नए सफ़र में हूँ,
आज ऐसा भी लगा,
पर,
इन सबका प्राप्य क्या है,
बिखरा हुआ तो
मैं तब भी उतना ही था!***

  - ©अमिय प्रसून मल्लिक