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सोमवार, 1 अक्तूबर 2007

तुम्हें 'ग़र कभी...























तुम्हें 'ग़र कभी असह्य प्रेमाघात लगे,
धीरे से अपनी आत्मा को जगा देना ।


मैं ख़यालों का पंछी बरवक़्त उड़ने आदी हूँ
मेरी निश्चेष्टता पर भी किसी का शोक नहीं है
उड़- उड़कर गुमराह होना सदियों से रहा है नियति मेरी
और मंज़िल के गिर्द मंडराने पर भी रोक नहीं है ।


पर तुम अपने परवाज़ों के पंख हमेशा हिलाते रहना
जमीं- आसमाँ के हर सहचर को अपने साथ मिलाते रहना
कोई अपना तेरी उड़ानों पर कभी लगाना चाहे 'ग़र बंदिश,
इक आह भरकर कोई तस्वीर अपने सीने से लगा लेना


तुम्हें 'ग़र कभ असह्य प्रेमाघात लगे,
धीरे से अपनी आत्मा को जगा देना ।


मैं हर घाट का पीनेवाला, किसी घाट पर दावा क्यूँ करूं
पी- पीकर निकल जाना ही मेरी पिपासा का तमाशा है
यूँ तो हर पड़ाव का लुत्फ़ लिया बेखुदी में अकसर
न जाने क्यूँ इस पनघट पे बढ़ गयी प्यास बेतहाशा है !


पर करो भी कैसे तुम हर किसी की हसरत को पूरा
दिख रहा हो तुम्हें जबकि प्यासी आंखों में प्रेम अधूरा !

हो, न हो कभी प्रेम पिपासु की कोई प्यास पूरी,
बुलाकर न दहलीज़ तक किसी प्यासे को भगा देना

तुम्हें 'ग़र कभी असह्य प्रेमाघात लगे,
धीरे से अपनी आत्मा को जगा देना ।



- "प्रसून"

1 टिप्पणी:

रंजू भाटिया ने कहा…

पर तुम अपने परवाज़ों के पंख हमेशा हिलाते रहना
जमीं- आसमाँ के हर सहचर को अपने साथ मिलाते रहना
कोई अपना तेरी उड़ानों पर कभी लगाना चाहे 'ग़र बंदिश,
इक आह भरकर कोई तस्वीर अपने सीने से लगा लेना

bahut bahut sundar likha hai aapne