!!! कापीराईट चेतावनी !!!
© इस ब्लॉग पर मौजूद सारी रचनाएँ लेखक/ कवि की निजी और नितांत मौलिक हैं. बिना लिखित आदेश के इन रचनाओं का अन्यत्र प्रकाशन- प्रसारण कॉपीराइट नियमों का उल्लंघन होगा और इस नियम का उल्लंघन करनेवाले आर्थिक और नैतिक हर्ज़ाने के त्वरित ज़िम्मेवार होंगे.

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

ग़ज़ल


ज़ख्म-ए-उल्फ़त से अब रंज ही रिसते हैं ।
खून के रिश्ते भी हो गए सस्ते हैं ॥


क्यूं फिर नादाँ दिल चाहे कोई हमसफ़र
झूठ ही हो गए जब सारे रिश्ते हैं ।

भटक ही गया इस राह पर कमसिन
न समझा, यहाँ सारे दोमुंहे रास्ते हैं ।

दिल को अब दर्द का तोहफ़ा ही मुबारक़ हो
ये नज़राना उनका सब तेरे ही वास्ते हैं ।

जिन्होंने तबस्सुम को अपने अश्कों से भिगोया हो
वही तो 'प्रसून' जग में रोकर भी हँसते हैं।



- " प्रसून"



[ शब्दार्थ :-- ज़ख्म- ए- उल्फ़त= मुहब्बत का घाव; रंज= दुःख; नादाँ= नादान; कमसिन= कम उम्र का; वास्ते= के लिए; तबस्सुम= मुस्कराहट; अश्क़= आँसू ]

3 टिप्‍पणियां:

रंजू भाटिया ने कहा…

क्यूं फिर नादाँ दिल चाहे कोई हमसफ़र
झूठ ही हो गए जब सारे रिश्ते हैं ।


भटक ही गया इस राह पर कमसिन
न समझा, यहाँ सारे दोमुंहे रास्ते हैं ।


बहुत खूब जी ..भाव इसके बहुत अच्छे हैं ..:)

अमिय प्रसून मल्लिक ने कहा…

thanx, ranjoo g!

ritusaroha ने कहा…

ज़ख्म-ए-उल्फ़त से अब रंज ही रिसते हैं ।
खून के रिश्ते भी हो गए सस्ते हैं ॥


kya khub zindgi ki sacchai likhi hai amiya ji.........bahut acchheeee