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गुरुवार, 17 जनवरी 2008

क्यूँ...


पहले कभी न ऐसा लगा,
दर्द न उठा कभी भीतर से
तेरी ख़ामोश आँखों ने
पहले कभी शिक़ायत न की,
पहले क्यूँ तेरी बातें
मैं उड़ा देता था हवाओं में,
पहले तेरा वक़्त- बेवक्त
हामी भरना हर बात में,
अब क्यूँ तेरी समझ
परिपक्व हो चली है,
क्यों रहती थी तू पहले
मेरे साथ चिपककर हमेशा,
क्यूँ मेरा साथ अब तुझे
कुछ सोचने को मजबूर करता है,
पहले तेरा हँसना
क्यों सिर्फ 'हँसना' था,
अब क्यों तेरी हर गति
मेरे लिए मायने रखती है,
क्यों तेरा साथ अब मुझे
रुस्वाइयों में भी गवारा है,
क्यों तेरा 'बिछुड़ना' पहले
आने वाले कल की देता था उम्मीदें,
क्यों अब तेरी जुदाई से

हो जाता हूँ विचलित,
क्यों तेरी हर बात,
क्यूँ मुझ पर राज करने लगी है...?


-"प्रसून"

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