रविवार, 12 जनवरी 2014
*** वो झकझोरती है... ***
हर रोज़ ही दफ्तर जाते
न चाहते हुए भी,
मेरी बुझी आँखें
उसकी ओर घूमती रही हैं,
और सरकते हुए मलीन ज़मीन पर
मैं उसकी टूटती काया का
बेरोक- टोक ही
इकलौता साक्ष्य बन जाता हूँ.
वो दिन भर मेरी
व्यस्त दिनचर्या में
कुछ यों, घुली हुई सी
मुझे बेबाक घूरती है
कि मैं जाने कितने ही हिसाबों में
अनजाने ही घाल- मेल कर जाता हूँ;
और उसकी वही घूरती आँखें फिर से
मुझे मेरे पशोपेश में होने के
सैकड़ों सबब दे जाती हैं.
उससे मेरा रिश्ता
भले चंद दिनों में बना हो
और इस ठिठुरती ठण्ड के बाद
उसका क़तरा भी भरसक
फफककर मुझमें भी दम तोड़ दे,
पर नौकरीपेशा मनुजों का
अचानक ऐसा दर्दनाक स्थानांतरण
मेरे दरकते हुए पौरूष को
बहुत सारे ज्वलंत सवाल दे जाता है.
वो अकेली ही पुआल पे लेटकर
चावल के असंख्य दानों से
गोया हर रोज़ इक नयी भूख चुनती है
और हर जठराग्नि तब सिसककर मौन होती है;
उसके नासमझ आँसू जब
अपनी अकेली निष्ठुर ज़िंदगी से
तड़पकर समझौता करती है.
हाँ, मैं रोज़ दफ्तर जाते
उसकी तन्हा दरकती ज़िंदगी का
अकेला ही साक्ष्य बनता हूँ,
और पूरे दिन मेरे व्यस्त कामों में
वो ओझल हो- होकर
मेरे ज़ेहन में अपनी
ख़ामोश उपस्थिति दर्ज़ करती है.
इस सुप्त पड़े लहू में फिर
एक टीस जगाती हुई
उफ्फ्फ... ठण्ड में ठिठुरती,
मुझे वो पिंजर मात्र भिखारिन
रोज़ ही तोड़कर रख देती है...***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें