अपराजिता
...जिसने ज़ेहन में जगह बनायी.
मंगलवार, 25 दिसंबर 2018
*** प्रेम के अनबोए बीज ***
›
...और मुझे लगा मैंने प्रेम को बेचा कभी, कभी औने- पौने दामों में खरीदा है। बेहिसाब अनमनी शर्तों की जिस मंडी में एहसासों को संभालकर म...
1 टिप्पणी:
*** जब महकने लगी तुम भी ***
›
तुम सुर्ख़ फूल- सी थी जब मैंने महकना शुरू किया मेरे रोम- रोम में तुम फिर किसी ख़ुश्बू- सी आ बसी। मैंने ख़्वाबों की दरख़्त पे कभी बेसबब ...
*** कहा होता 'गर... ***
›
उसने कहा तुमसे, लगता है, हर कोई मुझे छोड़कर चला जाएगा एक दिन, और तुमने कहा, ऐसा कभी नहीं हो सकता, ऐसा भी होता है भला कहीं, तुम नहीं गयी...
*** कोलकाता से लौटकर ***
›
तुम्हारी उदास आँखों में दर्द को कभी तबीयत से महसूस किया मैंने, तुम धुएँ में भभककर उठनेवाली आग सरीखी मेरी ख़्वाहिशों की किसी पुरानी याद- स...
*** अगर है... ***
›
नशा जो है ही नहीं अलसाए पड़े रहने से होगा क्या! मैं लौटकर फिर शराब पिऊँगा अब मुझे मृत्यु का ढोंग अपने भीतर ही रचना है, और उतार ले...
*** क्यों...! ***
›
फिर सोचता हूँ कविता ही लिखकर होगा क्या! ढेर सारी बातें निकलकर आएँगी और कई उलझनों में लिपटे हुए से हम हज़ारों शिकायतें करेंगे, हमारा ...
*** ...फिर रंग कौन सा है! ***
›
तुमने कहा था हम कहीं भी भटकने निकल पड़ेंगे जब मुहब्बत का बाज़ार गर्म हो जाए हम वफ़ाएँ भी करेंगे तो शहर दर शहर ज़िन्दगी तलाशकर और बिन बुलाए म...
*** मुझे बताओ! ***
›
मेरी आँखें सूजती रहीं इनमें लिपटी हज़ारों ख़्वाबों की हर उम्मीद ढल रही थी, मैं लेटी हुई फिर इनके निर्वासन का कोई भव्य आयोजन सोचने लगी कि प...
*** ये भूख भी मिटा लो! ***
›
जब मैं ज़रा भी भाव नहीं देती थी तुम्हें तुम लुटे हुए थे, चुन- चुनकर प्रेम का दाना खा जाते थे और सदियों की कोई भूख मिट जाती थी तुम्हारी कि...
*** जाकर लौट आना पड़ा ***
›
मैं कभी तैयार नहीं था, तुमने जो फ़ैसला किया कि फ़ासला बनाया जाए मैं प्रेम में तब भी विनाश चाह रहा था मुझे पागल होती आंधियों में उठनेवाली उद...
*** तुझे कहूँ कि तेरे शहर को...! ***
›
तुम्हारी अल्हड़ जुस्तजू में झुम्पा गांगुली, मैं कॉलेज स्ट्रीट की सैकड़ों किताबें छान आया, वहाँ छोटी- बड़ी नालियों से बजबजाती हुई, हर सड़क पे ब...
*** मैं क्या आज़माती...! ***
›
मेरे शब्द सारे और उलझ गए तुम पर लिखी जा रही हज़ारों कविताओं का जब तुम्हारे हाथों ही कहीं असह्य विमोचन होना था। मैं प्रेम में रही, और वहीं ...
शुक्रवार, 23 नवंबर 2018
*** ...फिर सवाल अहम हुए ***
›
उसने प्यार को बहुत क़रीब से देखा उसके 'होने', न 'होने' पर तभी कई सवालों को मंज़ूर किया। उसने कई बार प्यार में रोज़ लिखी...
2 टिप्पणियां:
*** और जो बदल गया ***
›
तुम जब शहर की ओर जा रही थी मैं वहीं अपने घर में बेसुध पड़ा रहा। मैं रहा मशगूल, मुझे मेरी ख़्वाहिशें समेटनी थीं और एहसासों के तूफ़ान से...
1 टिप्पणी:
*** तुम ***
›
मैं जब भी गुज़रूँगा तेरे घर की राह से ना कोई आवाज़ दूंगा ना मेरी कोई आह निकलेगी वहाँ डरता है मेरा मन आना पड़ेगा मेरे मूक बुलावे पे तुम...
*** जिसने सब ख़राब किया ***
›
वो बुरी नहीं थी, मैंने उसे जी भरके ख़राब बनाया। उसने प्रेम सरीखी किसी चीज़ से पहले मुलाक़ात नहीं की थी। मैंने उसे ऐसे कितने ही रास्ते ...
*** उन कविताओं का क्या...!***
›
सुनो न, मैं आ गयी हूँ फिर से पास तुम्हारे! तुमने कहा था, मैं भरसक नहीं लौटूँगी, कि जब तक तुम शिद्दत से नहीं पुकारते, मैंने तब कुछ औ...
*** यहीं लौट आऊँगा ***
›
सारी दुनिया से भटककर यहीं आ जाऊंगा, मैं तेरा ये शहर कभी नहीं छोड़ पाऊंगा. मस्तमौला आगाज़ बचपन का हुआ यहीं पे यहीं जवानी के...
1 टिप्पणी:
*** कुछ ऐसे हालात रहे ***
›
रात में ही तुम पर लिखी जा सकती हैं असंख्य कविताएँ। जब ये अंधेरा घना होगा मेरे शब्द और हरे होते चले जाएँगे शायद तभी तुम समझ सको इनके...
*** है न ऐसा? ***
›
जब तक तुम 'तुम' थी, मैं 'मैं' बना रहा। जब मैं और तुम 'हम' बने, हज़ारों नये सपने आ बसे। पर जो सांसारिक प्...
*** ...और मैं लिपटी रही ***
›
तेरी ग़ैरमौजूदगी में कुछ ऐसी भी गुज़री हैं मेरी कई सर्द ख़ामोश रातें कि रुई के बेपरवाह नर्म फाहों- सी तेरे एहसास से ही मैं लिपटी रही। ...
***तुम पर 'गर न लिखी जाए ***
›
ये सारी कविताएँ कैसे कोई कविता हुई! जब तक तुम आकर इन्हें पढ़ नहीं लेतीं और फिर कमोबेश मेरे बेबुनियाद साथ की तरह इनमें कोई वाज़िब कमी ...
*** जब उसे देखा था...***
›
उसके हाथ पे 'अमोघा' लिखा हुआ देखा। मैं तब सोशल मीडिया पर नयी- नयी इबारतें गढ़ने में लगा था मुझे रोज़ नये वाक़ये ख़ुद मिल जाते थ...
*** क्या लिखूँ तुम पर... ***
›
जाने क्यों आज तुम पर कोई कविता नहीं लिख सकी! जब भी तुम पर कुछ कहना चाहा, या चाहा लिखना कई अनकही बातें, ढेरों अनसुलझी कहानियाँ चलती...
*** आ क्यों नहीं जाते! ***
›
मैं अब कौन- सी कविता लिखूँ, और तुम पर कुछ कहने को कहाँ से शब्द टटोलूँ, 'गर तुम आसपास मेरे मौजूद ही नहीं और तुम्हारी बेपरवाही कहीं ...
*** तुम ही पर... ***
›
यूँ तो मैं कह सकता था और भी बहुत कुछ तुम पर। जाने कितनी ऐसी बातें जो मैं ख़ुद से भी कभी दुबारा नहीं कर पाया, और उन्हें मैंने जब अपनी...
*** 'गर तुम आ सको ***
›
आओ, इस तरह से आना कि आकर न जा सको फिर! तुमने आने का कहा था तो मैं इंतज़ार में रहा कि तुम नहीं आती तो मैं क्या करता, करता फूल, पत्ती,...
*** भूलना कहाँ होता...***
›
तुम्हें कभी याद नहीं किया कि भूल जाने पर भरसक ऐसे प्रयोग किये जा सकते थे। जिन्हें भूल जाने का भय है वो याद करें और निभाए अपनी दिनचर...
*** और मुझे लगता है... ***
›
तुम्हें पढ़ते हुए अपने ही शहर से मैं जाने कब बाहर निकल गया! जब तक वहाँ रहा, तुम्हारी यादों के घने साए में, और मैं प्यार में इतराकर ...
*** क्या लिख रहा हूँ! ***
›
डरता नहीं मन मेरा आव्रजन के किसी नियम से न मेरा प्रेम तथाकथित प्रशासन के किन्हीं सख्त उसूलों का कभी ग़ुलाम ही रहा है। सो, मैं आऊँग...
*** फिर बचा क्या है...! ***
›
अब तेरी कोई तस्वीर नज़र कहाँ आती, और कहाँ तुम्हारी यादों के आने का कोई सिलसिला बचा हुआ है, मैं जाने क्यों तुमसे मिली दूरियों को फिर भी गल...
›
मुख्यपृष्ठ
वेब वर्शन देखें