मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

*** प्रेम के अनबोए बीज ***



...और मुझे लगा
मैंने प्रेम को बेचा कभी,
कभी औने- पौने दामों में खरीदा है।
बेहिसाब अनमनी शर्तों की जिस मंडी में
एहसासों को संभालकर
मैं जिस तरह चीखता रहा
वहीं कभी मेरा प्रेम भी आकुल रहा
सबसे महँगा बिक जाने के लिए।
जिस तरह जुती हुई धूसर मिट्टियों में
सैकड़ों कीड़े यकायक उभर आते हैं
उचाट जीवन- से मिलनेवाली
मेरी हज़ारों बेबसियाँ रेंग रही थीं
और मैंने किसी के 'साथ' का कुरेदना
हर तरह से क़बूल किया,
मुझे लगा फिर
घाटे की इस खेतीबारी में
मैं जीने का हर रसायन समझने लगा हूँ।
तुम्हारे अनसुलझे इरादों में मैंने तब
तुम्हारी कोई बेचैन प्यास देखी थी
और किसी मुक़म्मल रूप को फिर न पाकर
तुमसे ही अहम की आँच ले
मैंने ऊसर ज़मीन पर उगे
प्रेम के अनाज को अब पका लेना मंज़ूर किया।
मैं पसीने की किसी मादक गंध में डूबा हुआ
अपनी धमनियों को समझा लेना चाहता था
जहाँ प्रेम है ही नहीं
उधर सिसककर कुछ गुनगुनाने से
कौन- सी कभी उन्मत्त हवाएँ चलेंगी,
सो, ज़िन्दगी के खेत जोतते हुए
बेनामी ज़मीन पर ही
कितने ही गीत लिखे थे प्रेम पर
हाँ, मेरा नादान प्रेम
इन असंख्य आशंकाओं में
भरसक कहीं अनगाया ही रह गया।
आज जब दुनिया
तुम्हारी अदाओं में उतावली हो उठी है
मैं वहीं से फिर जगकर
अपने अंदर तुम्हारे नये ख़याल बोता हूँ
और ज़िन्दगी की रुसवाइयों से करके हर सामना
फिर तुम्हारी अंजान बेवफ़ाई उगाता हूँ
मैं प्रेम के खेत में
शायद इक उलझा हुआ हताश किसान हो गया हूँ।****

                     -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

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