तुम सुर्ख़ फूल- सी थी
जब मैंने महकना शुरू किया
मेरे रोम- रोम में तुम
फिर किसी ख़ुश्बू- सी आ बसी।
जब मैंने महकना शुरू किया
मेरे रोम- रोम में तुम
फिर किसी ख़ुश्बू- सी आ बसी।
मैंने ख़्वाबों की दरख़्त पे
कभी बेसबब तुम्हारी यादें सहेजकर रख दीं
कभी मन ने चाहा
तो तुम्हारी पूरी दुनिया
अलसायी सुबह की चाय की प्याली में उतार ली,
इस तरह भी कई दफ़े
मैंने प्रेम को बूँद- बूँद गिरते- संभलते ख़ामोश पाया।
कभी बेसबब तुम्हारी यादें सहेजकर रख दीं
कभी मन ने चाहा
तो तुम्हारी पूरी दुनिया
अलसायी सुबह की चाय की प्याली में उतार ली,
इस तरह भी कई दफ़े
मैंने प्रेम को बूँद- बूँद गिरते- संभलते ख़ामोश पाया।
तुम्हारे नर्म- से एहसासों से लिपटकर
जितना समझना चाहा प्यार को,
उलझता गया मैं और
प्यार से पटी पड़ी चादर की
हज़ारों मदहोश सिलवटों में
तब जी गया
मैं फिर प्रेम की तमाम शर्तों को
प्रेम का ही नैसर्गिक हक़ मानके।
जितना समझना चाहा प्यार को,
उलझता गया मैं और
प्यार से पटी पड़ी चादर की
हज़ारों मदहोश सिलवटों में
तब जी गया
मैं फिर प्रेम की तमाम शर्तों को
प्रेम का ही नैसर्गिक हक़ मानके।
लिखकर मिटा देने से भी कई बार
योंकि कई कविताएँ बनीं
सो, कई बार मैंने
तुम्हारी बातों को इनमें लिख देना चाहा,
चाहा यूँ भी तब
तुम्हारी सर्द यादों का
इन हवाओं में
फिर से कोई महकता एहसास फैल जाए
पर तुम आ तो जाती यूँ ही
तब भी छलककर मेरी कविताओं में
मैं कुछ भी जब नहीं लिख रहा होता हूँ।
योंकि कई कविताएँ बनीं
सो, कई बार मैंने
तुम्हारी बातों को इनमें लिख देना चाहा,
चाहा यूँ भी तब
तुम्हारी सर्द यादों का
इन हवाओं में
फिर से कोई महकता एहसास फैल जाए
पर तुम आ तो जाती यूँ ही
तब भी छलककर मेरी कविताओं में
मैं कुछ भी जब नहीं लिख रहा होता हूँ।
मैंने हज़ारों ख़त तुम्हें
इन खामोशियों में भी फिर बराबर लिखे,
तुमसे न मिल पाने की
अंजान- अबूझ पहेलियों को और जिया अकसर
जो बना मगर सबसे अहम मुझमें
वो मेरा सबसे आख़िरी ख़त है
जो मैं तुम्हें लिखकर अब कहीं छुपा जाना चाहता हूँ।***
इन खामोशियों में भी फिर बराबर लिखे,
तुमसे न मिल पाने की
अंजान- अबूझ पहेलियों को और जिया अकसर
जो बना मगर सबसे अहम मुझमें
वो मेरा सबसे आख़िरी ख़त है
जो मैं तुम्हें लिखकर अब कहीं छुपा जाना चाहता हूँ।***
-✍©अमिय प्रसून मल्लिक.
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