सोमवार, 26 मई 2025

*** वो मिला मुझको... ***



वो मिला तो सही मुझसे!

जब आख़िरी बार मैंने 
उसे छूकर अलविदा कहना चाहा 
वो जा चुका था.
बहुत कुछ था
भूल जाने के लिए उन दिनों
पर स्मृतियों के हिस्से में वह अकेला आया.

मैंने रात के घुप्प अँधेरे में 
उसे देख पाने का
सबसे संगीन गुमान सहेज कर रखा था
और रोक रखा था चौखट पर
उसके अचानक खोकर कहीं चले जाने के
सबसे अकेले और असह्य एहसास को,
वो आया और जैसे मानो
सब कुछ ढह गया मेरे ही अंदर यकायक.

जितनी भी बातें थीं उसकी
उन सबमें जैसे कोई जादू था, 
जादू जो सब कुछ जैसे 
आसमान से खींचकर लाता हो 
सपनों के रंगीन गुब्बारे में भरकर
और अगले ही पल
छीन लेता हो सबके सामने कंगाल करके आपको.
जानती हूँ अब मैं,
घर लौटकर न भी रोता हो
शायद सधा हुआ जादूगर फिलहाल.

फटी हुई क़िताब में 
'प्रेम' उस भरोसे की तरह लिखा हुआ था
जिसकी आख़िरी घड़ी में 
मेरी जैसी कोई यात्री दौड़कर चढ़ी हो
चलती हुई ट्रेन में,
और अचानक जिसकी मंज़िल बदल जाए.
पूरे बियाबान सफऱ में मैंने
जिस ख़याल को सबसे ज़्यादा बेपरवाह किया
वो उसके छोड़े हुए 
कुछ अनकहे सवाल भर थे.
मन मेरा बौखलाए हुए चूहे की तरह
भटकना तक स्वीकार किया
कि जब मिट्टी में आग लगेगी,
वो सब कुछ कुतर के ख़त्म कर देगा,
भूख
और सहमा हुआ कोई दुःख भी,
अगर हो कहीं बचा हुआ.

उसी रात खाने की थाली में 
मैंने उसकी सबसे साफ़ तस्वीर देखी
मुझे जीने के लिए खाना होगा
ये सबक कहीं नहीं सिखाया गया पहले 
पर झुकी हुई आस में मेरी
खिलने का हुनर इतना तेज़ था
मैं पानी पीकर उठ गयी,
और सब कुछ ख़ामोश करके
सच को स्वीकारना मंज़ूर किया 
कि ख़ामोशी ही इस प्रेम की
सबसे लम्बी कहानी है.

आज मेरे बुलाने से पहले वो आ चुका था
यही फ़र्क़ इस बार 
सबसे ज़्यादा चुभन से भरा हुआ लगा...

उसने मेरा हाल पूछा
पर मुझे नज़र उठाकर वो देख भी न सका
मैं जानती हूँ,
उसकी आँखें इतनी दूर देख सकती थीं
कि मुझे कभी उनमें अकेलापन नहीं मिला था,
न लहरों का कोई बवंडर,
न ही किसी नाराज़गी का कोई सवाल था
जब वो हर बार की तरह आया.

वो मिला तो सही इस बार भी मुझसे
मेरी उम्मीद से कहीं आगे जाकर
पर वो जाने क्यों
इस बार हमेशा की तरह नहीं मिला...***
   
                    - ©'प्रसून'

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