शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

*** ...फिर सवाल अहम हुए ***


उसने प्यार को
बहुत क़रीब से देखा
उसके 'होने', न 'होने' पर
तभी कई सवालों को मंज़ूर किया।

उसने कई बार
प्यार में रोज़ लिखी जाने वाली
नयी कविताओं को समझना चाहा
और मुलाक़ात के सारे वायदों को
मन की डायरी में
चाहा शिद्दत से उकेरना,
पर हज़ारों अनसुलझे लफ़्ज़ों से सजे
उसे बस मायूसी के खुले लिफ़ाफ़े ही मिले।

वो प्रेम करके ही
इसमें मिलनेवाले किसी दर्द का ख़ाका
किसी के साथ खींच पायी,
और जो किसी के वश में कभी न हो पाया
उस अजीब एहसास में मिलकर अकेली इतरायी भी।

वो प्रेम- दरिया के
उस किनारे पर अब खड़ी थी
जहाँ मुक़म्मल रास्तों का
हर सवाल बेईमानी बन जाता है।
वो तो झूठ में भी
किसी नैसर्गिक रिश्ते की बीज बो चुकी थी
और समय के गर्भ से
कथित प्यार की कोई निशानी जनने की
सैकड़ों उम्मीद लिये फिर रो पड़ती थी।

उसने प्रेम में
असंख्य असह्य आँसू लिये
समय की क़ैद होती अजनबी आयतों में
कभी न फिर प्रेम करने की
नयी- नयी आज इबारतें जोड़ दी हैं।***

                  - ©अमिय प्रसून मल्लिक

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-11-2018) को "सन्त और बलवन्त" (चर्चा अंक-3165) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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