जब मैं
ज़रा भी भाव नहीं देती थी तुम्हें
तुम लुटे हुए थे,
चुन- चुनकर
प्रेम का दाना खा जाते थे
और सदियों की कोई भूख मिट जाती थी तुम्हारी
कि तुम्हारी भूख अहम थी।
अब तुम
जान- बूझकर बस भाव खाने लगे हो,
तुम्हारी तरह ही
भूख भी बदल गयी है तुम्हारी,
जान- बूझकर बस भाव खाने लगे हो,
तुम्हारी तरह ही
भूख भी बदल गयी है तुम्हारी,
लो, मैं भाव देने लगी हूँ तुम्हें।***
-✍©अमिय प्रसून मल्लिक.
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