मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

*** ...फिर रंग कौन सा है! ***




तुमने कहा था
हम कहीं भी भटकने निकल पड़ेंगे
जब मुहब्बत का बाज़ार गर्म हो जाए
हम वफ़ाएँ भी करेंगे तो
शहर दर शहर ज़िन्दगी तलाशकर
और बिन बुलाए मेहमान की तरह
मैं तुम्हारे अपने शहर दिल्ली चला आया।

मुझे मेरे प्रेम का वैस्तार्य हर हाल में ढूँढना था।

मैंने ख़ुद में ही फिर तय कर लिया था,
जब ठिठुरती रात में
रिक्शेवाले के वाज़िब किराए मिलने की जगह
गाली- गलौज की उफ़नती आवाज़ मेरे कानों को चीरेगी
मैं तब ही प्रेम को धधकता महसूस करूंगा,
फिर मैं दोनों ही तरफ़ के
प्रेम में रुपयों की तनातनी को
जीने की जायज़ वजह बना लूँगा।

हाँ, तुम्हारे इस अजनबी- से अनमने शहर में
दिल पसीजने और धड़कनें लील लेने की
सैकड़ों कहानियाँ पहले भी सुन रखी थीं मैंने।

तुम्हें याद होगा
जब जी भरके मिर्ची देकर तुम्हें
दोपहर के खाने में तीखेपन का एहसास कराया था मैंने,
मैं देखना चाहता था
तुम्हारे चेहरे से निकले पसीने में बेबसी को
तब मैं ये समझने को तैयार नहीं था,
प्रेम मिलकर छूट जाने का दर्द क्या हर तरह से कहीं ज़्यादा भयावह होता है!

मिर्च के उस बेसब्र तीखेपन को
मैंने इसलिए तुम्हें अपने हाथों से खिलाना नहीं चाहा था
कि मैं कुछ चाहता था तुमसे,
मैं बदमाशियों में खिलखिला कर देखना चाहता था,
मेरे पास असंख्य एहसासों की जो एक वजह बन गयी थी
जो मैं चूक गया,
तब बिना कुछ चाहे तुमसे
बस, तुम्हें चाह लिया था मैंने।

मैं अनपची यादों से
फिर जाने क्या- क्या निकालने लगता हूँ,
कि तब तुम्हें मेरी
वे उंगलियां भी अच्छी लगी थीं
वे प्रेम से लैस लंबी थीं
और सजी हुईं तरतीब
उनके उन्हीं पोरों में
जहाँ अब तुम्हें मेरा रिसता हुआ दर्द दिखायी देता है
ये ज़ख़्म अब शब्दों से और भी गहरा हो गया है शायद,
सो, तुम्हें मेरी कविताएँ
इसलिए भी अच्छी नहीं लगेंगी।

ये ऐसी ही कुछ बाते हैं,
जो तुम्हारी तरह आती- जाती रहेंगी
पर जो तुम्हारे बेग़ैरत शहर में छूट गया तुमसे भी कहीं
जानता हूँ,
मैं वैसा कोई मुक़म्मल ठिकाना- सा भी नहीं रहा हूँ।

मधुलिका,
इसी शहर की फिर अंधी भीड़ में
किसी थके हुए रिक्शे पे बैठकर
सड़क दर सड़क तुम्हें ढूंढता हूँ
और बग़ैर किसी उन्माद औ' फ़साद के
उसी किराये के मकान में लौट आता हूँ
कि मुझे किराये की जगह का इल्म पता है,
जहाँ तुम्हारी यादों से पटी बिस्तर पे
मेरी बदहवास यादों का इक चश्मा रखा हुआ है
जिससे प्यार में जिये लम्हे
अकेला देखता हूँ,
और इस सच्चाई से फफक पड़ता हूँ,

कि मैं फिर प्रेम में पड़कर
और भी मटमैला होता चला गया हूँ।***


            -✍©अमिय प्रसून मल्लिक.

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