मेरे प्रेम की परिभाषा
जानना चाहती हो तुम!
मैं कह तो नहीं पाऊँगा
अपनी बेचैन ज़ुबाँ से,
मैं समझा भी नहीं सकता
तुम्हारे अनपेक्षित शब्दों में;
पर प्रेम की भाषा की
भरसक यही तो बानगी है.
पहले तुम मेरे लिए
सिर्फ़ 'तुम' हुआ करती थी
आज अपने हर काम के
तौलता हूँ अंजाम
तुम्हारी कसौटी पर.
सोचा करता था कभी मैं
तुम्हें ही ख़ुश रखने के सबब को
आज देखने लगा हूँ
दुनिया को तुमसे जोड़कर.
तुम्हें देना चाहता था जब
मैं इक पूरी दुनिया,
अब मेरी सोच का ये करिश्मा है,
क्या दे सकूँ मैं
तेरे साथ मिलकर दुनिया को,
इस अबूझ सवाल में
मैं रात- दिन उलझा हुआ हूँ!
मेरे दिलो- दिमाग़ का
जादू ही है यह
कि तेरा आना कभी
मुझपर छा जाना था,
अब तेरी छाँव की ठंडक
पड़ती है किस- किस पर
मैं इस घने सवाल को
रोज़ सिरहाने लेकर सोता हूँ.
जाने ऐसी कितनी ही बातें हैं
जो पहले नितान्त निजी थीं मेरे लिए,
पर तेरा साथ अब मुझे
मतलब बताने लगा है
'सार्वजनिक' शब्द की व्यापकता का,
क्यूँकि प्रेम वो नहीं है
जो सदियों से ख़ुद पर आँकते रहे हैं हम.
अब इसे ही प्रेम करने का
मेरा अंदाज़ समझो
मैं जानता हूँ, तुम इत्तेफ़ाक़ नहीं रखती
पर सच भी है,
प्रेम जो नहीं करती हो तुम
'स्व' से इतर होकर कभी.
सो, एक गुज़ारिश है तुमसे
वो तो जब न तब कर ही लोगी
पहले विकसित कर लो,
प्रेम की कोई अपनी परिभाषा ! ***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें