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रविवार, 6 अप्रैल 2014

'' मैं ढूँढ लूँगा...''



कैसे रहा करता था मशगूल पहले
मैं अलग अपनी ही दुनिया में
हँसा करता था वक़्त- बेवक़्त
दोस्तों- यारों के साथ.
कितना बेपरवाह था मेरा वो हर पल
और जिया करता था कैसे
हर पल मैं जीने के लिए!
उस हवा से भी तब मैं
हुआ करता था कितना अंजान
छू जाती थी जो आकर
कभी- कभी बगल में मेरी
जाने ऐसी ही कितनी ही वफ़ाएँ
जो छूती थी मुझे
और चाहता था साँस लेना मैं
ख़ुद इनकी मौजूदगी में अकसर!

न मेरा चलना कभी रुका था;

और न मेरा रुकना कभी
हुआ था 'रुकना' सही मायने में.
किस सफ़र का तब मैं था राही
जहाँ न कोई मेरा हमसफ़र था
चलना, चलना और चलना
हर मुक़ाम को मान लेना मंज़िल
यही भरसक रहा था मेरा सफ़र
ज़माने भर से भटककर यूँ ही
कैसा अनूठा था वो तब
मंज़िल पा लेने का मेरा गुमान!

पर आ न सका कभी कोई

मेरे अन्दर के शब्द- विन्यास में
और जब इक बार वर्णों ने ख़ूब झकझोरा
तब पाया जो मैंने अपना कथित प्रेम
जिसके लिए छुपी थी अन्दर
दिल में मेरे सिर्फ क़द्र
बस इक आह ने फिर मानो
कर दिया था किस क़दर
सब कुछ सामान्य मेरे लिए
इक हिचकिचाहट के साथ
बिना हिचकी लिए!

तब आँखों में कैसी थी वो तृष्णा,

हर बार जिसने पीछे मुड़के तो देखा
पर आनेवाली किसी अमूर्त छवि को
किसी तस्वीर में ढाल न सकी.
कैसे हो गया था ये सब
कितनी धुँधली झलक मिली थी सहसा
उस स्पर्श के शैतल्य- मात्र से
ऐसे ही बेवजह,
और यहीं पर कुछ था, यहीं पर कुछ था
जब फड़क- फड़क- सा उठा था
इस राही का हर हेतु,
हर आकांक्षा, हर पल, हर बात
सिमटने चले थे
उस असीम संभाव्य की सिर्फ़ एक दुनिया में
कितना अप्रत्याशित था उस संकुचन का फैलाव तब
जुड़- जुड़कर हर कण ने फिर
बना ली थी अब अपनी छाप
झुठलाता रहा था मैं जिसे अब तक
जान- बूझकर भी अनजाने में!

कितना गहन अन्वेषण था वो

कितनी गहन थी वो दुश्चिन्ता
चौंक- सा गया था जब
मेरे अन्दर का स्थूल विचार,
'ऐसा भी हो सकता है...!'
हर परिदृश्य नज़रों के सामने का
हर अपना, हर सपना,
यकायक ही अपनी छवि बदल ले
और जिसका कारण
हो समुच्चय उन कणों का
जो जुड़- जुड़कर 'अमूर्तता' को जीवन्त करता है!

क्यूँ छोड़ देता मैं उसे,

कैसे मेरे पग चले आते पीछे उसके लिए
जिसने हर क़दम को कहा अब तक
' कैसा था वो...?' --- प्रश्नचिह्न है मेरा,
और जहाँ मैं रहा हरदम निरुत्तर!
पर आज ढूँढता हूँ उसे कहाँ मैं,
क्या ढूँढ पाएगा यह निरीह
उस अदम्य आकांक्षा को, मेरी अभिव्यक्ति को,
क्या नाम है उसका,
या कि कोई नाम ही नहीं,
मैं रहा हूँ कब से अन्वेषक, मगर फ़िलहाल,
तुम्हारे नाम का ही पर्याय ढूँढ रहा हूँ.***

                 --- अमिय प्रसून मल्लिक


2 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

भावों का अद्भुत तारतम्य शुरू से अंत तक रहा

अमिय प्रसून मल्लिक ने कहा…

शुक्रिया दिल से, रश्मि जी! ऑरकुट ज़माने में ब्लॉगिंग के बाद आज आपकी राय मिली है. आज ही पुराने कमेंट भी पढ़े हैं. बड़ा सुखद है फिर से आपका आगमन. :)