हाँ, वहीँ से
फिर
शुरू करता हूँ
आज
उन एहसासों का चरमराया
ख़ाका
कि जहाँ कभी
तुम्हारी मौजूदगी के ढेरों
ही
क़िस्से बुलंद रहे थे.
और रही थीं
चंद सुर्ख ख़्वाबों
की
सँवरती हुई टिमटिमाती
महफ़िलें,
जहाँ मुझे अपना
बना लेने का
कभी तुमने प्रेम के
ही आक्षेप
संभल के कोई
बीज बोया था.
तब न तो
तुम्हारा कभी
धधककर प्रेम जवाँ हुआ,
और न ही
मेरे एहसासों को
सर उठाकर हुँकारने की
कहीं कोई चुनौती
मिली थी
पर जो अरसे
तक तुम्हारे ही
कारण
हम दोनों के दरम्याँ
कहीं सुबक
कर दम तोड़ता
रहा
उसी को भरम-
सा सीने में
पालकर
हम दोनों ने ही
कई उन्मादी रातें स्याह
की थीं.
आज पिछली कहानियों का
इस जहाँ में
अकुलाकर
तेरे ही परिप्रेक्ष्य
में सही
अद्भुत- सा कोई
अर्थ उभरा है;
और तुम्हारे ही हवाले
से फिर
भाव- संरक्षण का कहीं
बेसुरा- सा बिगुल
बजा है
उन सबको ख़ामोशी
से
फिर भी कहीं सीने
में सुलाकर
हमने प्रेम- युद्ध जीतने
की
मानो, संसार में मुनादी
करवा दी है.
अब आज तुमसे
रुमानियों का
हर क़िस्सा सँवर के
हैरत में है,
और सिसक कर
कहीं
अब भी रहा
है दम तोड़ता
हुआ;
ऐसे कितने ही बेसुध
मौकों को
हमने ख़ुद से
ही फिर
ख़ुशफ़हमियों
में जी लेने
की
इस मटमैली चादर में
ही
समेटकर इक जगह दे दी
है
पर, जो
उखड़ी- उखड़ी यादों
का
अब हर शय
में सिलसिला पनपा
है
उनमें डूबकर मन इस
सोच में हैराँ
है,
कि यह कैसा
चला रखा है
तुमने
आज भी अपना
कोई रचनात्मक आंदोलन...!***
--- अमिय प्रसून
मल्लिक
एक आंदोलन मन में भी चलने दो
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंShaandar..jaandaar...dhardaar
जवाब देंहटाएंEk dhurandhar kavi ki super-duper kavita :)
शुक्रिया 'अज्ञात' जी और अंजू जी!
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