सोमवार, 16 जून 2014
*** ...कि मैं बीमार जीती रही ***
और जिस गर्मजोशी से मैंने
प्रेम के भुलावे ही सही
तेरे दायरे की मिटटी में
इतराकर कोई बीज बोया था,
उसके अकुलाए प्रस्फुटन से
मेरी अपनी पहचान भी गोया,
अपनी साख पर लगे बट्टे की
सिसककर आह भरती रही.
तुमसे रिश्तों की परिधि
अपने तैयार गुमान के संग
जब मेरे ढलते यौवन में
बड़े उन्माद से चिह्नित हुई,
मैं तब भी बेतहाशा
उन बेपरवाह मेल- जोल में उलझी रही;
जहाँ न तो कभी
तुम्हारा मौन मुखर होके ज़िन्दा हुआ,
और न ही मेरी अपनी अकड़
अपनी जीत का कोई पताका लहरा सकी.
जब तुम्हारा अल्हड़ संग
पूरे खुले संसार में मुझे
तुमने ही बिना शर्त के कभी
प्रेमातुर होकर सौंपा था,
मैं तब भी अपनी नादानी का
कहीं कोई ख़ाका न खींच पायी,
और जो सिसकता- सिमटता कहीं
नेपथ्य में दुबका पड़ा रहा,
प्रेम के ही भुलावे ने कुचलकर उसको
संसार जीत लेने का मानो
मुझे हमेशा दम्भ देता रहा.
आज तुम कहीं हो या नहीं,
पर तेरी यादों से हर कोना
लहूलुहान-सा ज़िन्दा तो है,
कि तुम कभी फ़ुर्सत से
आओ मेरी इबारतों में
सो, तेरे भी 'गर दर्द हरे हों
उनको लिखकर महसूसने की मैंने
ख़ुद से ही चुनौती ले ली है,
क्यूँकि दवाओं का कहाँ कोई,
मेरे मर्ज़ में कभी,
कोई संभालता सहारा रहा है;
वो तो तेरी दुआओं से ही
मैं हर रोज़ इक उम्र जीती रही.***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
Pic courtesy:- 600 × 470/ Google
nice lines
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