शनिवार, 11 अक्टूबर 2014
*** क़िताब, कि ज़िन्दगी...***
कहाँ कोई कविता
इन दिनों
तुम पर लिखी जा रही है
और कहाँ अब कोई छंद
जड़े जा रहे हैं तुम पर
कि जो सदियों से
तुम्हारे वजूद का
बेचैन भँवर रहा है;
उसी को खुले बाज़ार में
मैंने बिकते देखा है
आज बहुत कम क़ीमत पर.
हो सकता है, हो
तुम्हारे मिट जाने का
ये भी इक रास्ता
उन्हीं अंतहीन सिलसिलों में
और कुछ भी यहाँ
न छोड़ जाने का
यह भी एक सँवरता मलाल हो,
पर सौंपा था तुमने
कभी मेरी आग़ोश में जिन्हें,
उन एहसासों से लबरेज
कभी न बिकनेवाली
ये आज इक क़िताब भर है.
तुम्हें पढ़नेवाला अब पढ़ेगा क्या,
कि जो छपकर भी न कभी
उन आँखों में गोचर हुआ
ऐसे ही असंख्य
बाज़ारू सन्दर्भों से
इस डिमाई आकार में
पूरा संसार ही
आज भी कहीं सिसककर समाया है.
शायद तुम फिर से
कभी तो देकर
आदर्शों की मुखर तिलांजलि
मेरी रचनाओं में
स्याह, कि सुर्ख- सी
कोई नयी ज़िन्दगी फूँक दो,
नहीं तो फिर,
कुछ भी लिखते रहने का
औचित्य ही क्या है !***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
(Pic courtesy- www.google.com with some modifications)
vichar pradhan rachna badhaaee.
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