तुम उस दिन,
अमलतास हाथों में लिए
उसी मोड़ पर
जाने क्यूँ कर खड़ी हुई,
जो यहाँ मेरा मन
रिश्तों के रसायन में उलझा
किसी सटीक समीकरण की
जुगाड़ में गुम हुआ;
और हो चली थीं इच्छाएँ
प्रेम- पीलिया से
शनैः- शनैः
मुक़म्मल ठौर तक रुग्ण.
तुम्हारे,
गुज़रने भर की गंध से
मेरी साँसें उग्र होती थीं
और अंदर किसी धौंकनी की मानिन्द
मैं इस प्रेम- प्रतिज्ञा के
अनुष्ठान में
स्वयं ही अकेला लिप्त होता था.
होती थीं तब
उस यज्ञ से उठनेवाली
मेरी अतृप्त ज्वाला की दहक इतनी
कि सिर्फ़ तुम्हारे संग को
छद्म साक्षी करके
इक समर्पित उम्र तक
संस्कारों का मूक निर्वाह करता रहा.
तुम मुझे वहीँ रोककर
किसी हवा- सी गुम हो गयी,
मैं हाँफ- हाँफकर भी
उसी महायज्ञ में
तुम्हारे साथ की ललक को
हर तरफ भटकता रहा.
न तुम्हारी परछाइयों की,
न तुम्हारे एहसासों की फिर
कहीं कोई ज़िन्दा निशानियाँ मिलीं
और मैं,
बेपरवाह ज़िन्दगी को
तुम्हारी चाह मानकर
यूँ ही संभालकर जीता रहा.
अब तुम्हारी यादों संग
मुझे कोई साक्षात्कार नहीं करना,
और नहीं चाहिए मुझे
मेरे अंतरतम में
तेरी मौन मौजूदगी का हवाला
कि मैंने उसी मोड़ पर
तेरी आबो- हवा में साँस लेने का
फिर से ठिकाना बुना है
और चाहा है तेरे हाथों के
उसी अमलतास का,
यकायक ही सुर्ख हो जाना.
सुनो, तुम बेमौसम
बेशुमार पलाश की तरह
आज कुछ यों खिल जाओ,
कि यहाँ हर तरफ़
बंजर सुवास- सा
मेरा वजूद पसरा हुआ है.***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
उसी मोड़ पर
जाने क्यूँ कर खड़ी हुई,
जो यहाँ मेरा मन
रिश्तों के रसायन में उलझा
किसी सटीक समीकरण की
जुगाड़ में गुम हुआ;
और हो चली थीं इच्छाएँ
प्रेम- पीलिया से
शनैः- शनैः
मुक़म्मल ठौर तक रुग्ण.
तुम्हारे,
गुज़रने भर की गंध से
मेरी साँसें उग्र होती थीं
और अंदर किसी धौंकनी की मानिन्द
मैं इस प्रेम- प्रतिज्ञा के
अनुष्ठान में
स्वयं ही अकेला लिप्त होता था.
होती थीं तब
उस यज्ञ से उठनेवाली
मेरी अतृप्त ज्वाला की दहक इतनी
कि सिर्फ़ तुम्हारे संग को
छद्म साक्षी करके
इक समर्पित उम्र तक
संस्कारों का मूक निर्वाह करता रहा.
तुम मुझे वहीँ रोककर
किसी हवा- सी गुम हो गयी,
मैं हाँफ- हाँफकर भी
उसी महायज्ञ में
तुम्हारे साथ की ललक को
हर तरफ भटकता रहा.
न तुम्हारी परछाइयों की,
न तुम्हारे एहसासों की फिर
कहीं कोई ज़िन्दा निशानियाँ मिलीं
और मैं,
बेपरवाह ज़िन्दगी को
तुम्हारी चाह मानकर
यूँ ही संभालकर जीता रहा.
अब तुम्हारी यादों संग
मुझे कोई साक्षात्कार नहीं करना,
और नहीं चाहिए मुझे
मेरे अंतरतम में
तेरी मौन मौजूदगी का हवाला
कि मैंने उसी मोड़ पर
तेरी आबो- हवा में साँस लेने का
फिर से ठिकाना बुना है
और चाहा है तेरे हाथों के
उसी अमलतास का,
यकायक ही सुर्ख हो जाना.
सुनो, तुम बेमौसम
बेशुमार पलाश की तरह
आज कुछ यों खिल जाओ,
कि यहाँ हर तरफ़
बंजर सुवास- सा
मेरा वजूद पसरा हुआ है.***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
(Pic courtesy: www.google.com with some modifications)
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (20-03-2015) को "शब्दों की तलवार" (चर्चा - 1923) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना पर बधाई!
जवाब देंहटाएंVery Nice post..
जवाब देंहटाएंकविता में बढ़िया बिम्ब देखने को मिला ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ....