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शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

*** जब उसे देखा था...***



उसके हाथ पे
'अमोघा' लिखा हुआ देखा।

मैं तब सोशल मीडिया पर
नयी- नयी इबारतें गढ़ने में लगा था
मुझे रोज़ नये वाक़ये ख़ुद मिल जाते थे
और मैं शब्दों का तारतम्य बुनने लगता।
फिर क्या हुआ अचानक,
मुझे 'हाथ' की इक तस्वीर दिखी
जिस पर 'अमोघा' लिखा हुआ था
और मैं पशोपेश में पड़ गया।

मैं इसका अर्थ ढूँढने में
बड़ा ही बेचैन- सा रहने लगा,
मुझे कभी- कभी
इस नाम में उस शख़्स की नैसर्गिक चाहतों का दमन दिखा
और कभी
उस शय के अचूक- अपराजित होने का सिलसिला मिला,
मैं इसके अर्थ में फिर और उलझता- डूबता गया।

उसकी वो 'अमोघा' पर मुझे नहीं दिखी,
ऐसा अजीब विषय पर मैंने पहले कभी नहीं गढ़ा था,
नहीं दिखा कभी
उसे अपने ज़ेहन में उकेरने वाले का कोई ग़म या उसकी कोई क्षति,
यों कि
वो रोज़- रोज़ हर जगह कहाँ आ पाती है,
और उसका यकायक चले जाना भी,
उसे अपनी इबारत में ज़िन्दा रखनेवाले के लिए
किसी युग का कभी अवसान नहीं रहा है।

उस शख़्स की
बेलौस दिनचर्या में भी
इस अबूझ नाम का कुछ यों चस्प होना सम्भाव्य रहा है,
कि
उसपर कुछ नहीं कहना भी
ख़ुद में इसका एक पूरा अमिट संसार है।

वो हँसता है, खिलखिलाता है,
घाट पे, बाज़ार में, शहर में, दुकान में, सड़क, फूल, तितली, टैटू में,
जब बिना किसी आस के,
उसके आस- पास ही पूरे वजूद में
इस 'अमोघा' का अपना संसार आ बसता है,
और बिना किसी शिकायत के अकेले
वो उसपर सैकड़ों ख़ामोशी की आयतें पढ़ने लगता है।

'अमोघा' ने उसे जो दिया
वह उसे अपने अन्दर सहेज कर रख चुका है।

मैंने देखा,
उसने अपने हाथ पे
बस एक नाम 'अमोघा' गुदवा रखा है।***

                  - ©अमिय प्रसून मल्लिक

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