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शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

*** और जो बदल गया ***



तुम जब शहर की ओर जा रही थी
मैं वहीं
अपने घर में बेसुध पड़ा रहा।

मैं रहा मशगूल,
मुझे मेरी ख़्वाहिशें समेटनी थीं
और एहसासों के तूफ़ान से
निकाल के
जी लेनी थीं कई अबूझ ज़िन्दगियाँ।
मैं डूबा हुआ था,
तब भी उन्हीं वायदों के भरम में
जिनसे मेरी साँसों में
कभी कोई ज़िन्दा रवानी तुमने भरी थी।

यूँ तो
तुम्हें लौटकर आ जाना था
अपने ही किसी मुक़म्मल पहलू में
कि भूल जाना था फिर
कभी न छूटने वाले बेपरवाह ख़यालों को,
प्रेम- बगिया की गढ़ी चहारदीवारी को
जहाँ मेरा, तुम्हारा, हर किसी का
प्रेम, 'गर हो
रोज़ ही भभककर जवाँ होता है।

तुम फिर,
जाने क्यों आकर भी नहीं आ पायी
और मैं ठगा- सा
सारी संभावनाओं को टटोलने में रह गया,
मैं उलझ गया तब
प्रेम और प्रेम में मिलनेवाली उम्मीदों के
वैसे ही किसी अजनबी और उन्मादी नये शहर में
और मुझे सब कुछ भुला दिया जाना
हर तरह से जायज़ लगने लगा।

कुछ भी
बदल जाने की सारी नाउम्मीदी के बीच,
हो गया फिर हर सवाल सशंकित,
बदल गया हूँ मैं, तुम
या कि आज
वो झूठा समय बदल गया है!***

                 - ©अमिय प्रसून मल्लिक

1 टिप्पणी:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/11/2018 की बुलेटिन, " टूथपेस्ट, गैस सिलेंडर और हम भारतीय “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !