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मंगलवार, 25 दिसंबर 2018
*** जाकर लौट आना पड़ा ***
मैं कभी तैयार नहीं था,
तुमने जो फ़ैसला किया कि फ़ासला बनाया जाए
मैं प्रेम में तब भी विनाश चाह रहा था
मुझे पागल होती आंधियों में उठनेवाली
उद्दंड हवाओं का शोक मनाना था
पर मैं तेज़ होती पुरबाई के तिलिस्म में खोया रहा।
तुम नहीं आयी प्रियंका पाण्डेय
तुम्हारी बेवफ़ाई से
पर कोलकाता की हर गली बजबजाती रही!
मुझे लगा,
'रवीन्द्र सदन' के पास प्रेम का कोई संगीत बजेगा,
तुमने कहा था, वहाँ थियेटर चलता है अक्सर
और हम वहीं साथ में मिलेंगे,
मैं इस बार भी ग़लत हो गया
फिर वहीं बैठकर अकेले
तुमपर चलनेवाले किसी थियेटर की ज़िन्दा 'स्क्रिप्ट' सोचने लगा।
मुझे ख़याल नहीं रहा
कि ये तुम्हारे सिद्धांतों का अपना शहर है,
और यहाँ तुमसे चूककर हर बात बेईमानी की बात है,
तब दर्शक- दीर्घा में बैठनेवाले संभ्रातों की चमचमाती असंख्य नयी कारों की उन्मादी भीड़ से ही,
मैंने आदमी से आदमी के ठुकरा दिए जाने के नियम सीखे
ये महज़ इनकार की बात नहीं थी,
तुम पर बेवक़्त लिखी जा रही कहानियों का यहीं से आरम्भ होना तय था।
मैं तो तुम्हारे शहर को
वफ़ाओं के किले के रूप में देखना चाहता था,
मुझे हीर- राँझा के सपनों की यहाँ पर कतरनें ही मिलीं
मैं कैसे समझ पाता
कि महानगर का वैस्तार्य प्रेम की मादक गंध को भी चीर देता है,
हाँ, यहाँ जीवन से परे नाटक चल रहे थे
और उधर मैं सड़क दर सड़क तुम्हारी अंधी जुस्तजू में
तुम्हारे नाम पर ही किसी मोहल्ले का नाम सुन रहा था।
घर के लोग कहते रहे,
'गर प्यार किया ही नहीं कभी तो
तुम्हारे शहर से बार- बार रूठकर होगा क्या
रहेंगी कहाँ तुमसे मिलने वाली वो रुसवाइयाँ,
हज़ार चुम्बनों से मेरे ज़ेहन में,
और जो तुमने मेरी उलझी हुई नसों में कभी
बड़ी तबीयत से 'इंजेक्ट' कर रखी थीं!
पर काग़ज़ के कुछ टुकड़ों और मेरे आँसुओं से धुँधली पड़ जानेवाली उन इबारतों को लेकर
तुमपे कोई चलचित्र बनाना मेरा मक़सद बन गया।
मुझे रिश्तों की बातें बेईमानी लगने लगीं,
तुम और तुम्हारे अप्रत्याशित ओहदों पर मुझे
कितने ही आख्यान देने के खुले निमंत्रण मिले,
मैं तुम्हारे कोलकाता से लौटकर ही तब
शहर में खुलेआम बिकनेवाली वफ़ाओं का नया ख़ाका खींच पाया,
सीख गया तब मैं
शहर और उसके बीचोंबीच उठनेवाले
दमघोंटू धुएँ के उफनते हुए मर्म को।
मैं तब भी सजदे में था
तुम्हारी बेवफ़ाई पर प्रियंका,
अपनी ग़ैरत को गिरवी रखकर भी
जब तुम्हारा शहर एक किनारे अड़ गया था,
मैं लफ़्ज़ों से विध्वंस को आमादा था!
तुम क्यों न फिर भीड़ का बाज़ार गर्म रखो
तुम्हारे शहर की तंग गलियों से लौटकर जब तुम्हारे अपने ही
बेवफ़ाई पर उकेरी हज़ारों नज़्म निगलेंगे!
और इसी तरह
सिसककर ऊँघते हुए
वफ़ाओं की वाज़िब क़ीमत मैंने तुम्हारे शहर में ही जानी।***
✍© अमिय प्रसून मल्लिक.
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