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मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

*** तुझे कहूँ कि तेरे शहर को...! ***



तुम्हारी अल्हड़ जुस्तजू में झुम्पा गांगुली,
मैं कॉलेज स्ट्रीट की सैकड़ों किताबें छान आया,
वहाँ छोटी- बड़ी नालियों से बजबजाती हुई,
हर सड़क पे बिकनेवाले अड़हुल के सुर्ख रंगों पर
मैंने फिर विरह की नयी कविताएँ लिखनी चाहीं,
उनमें मुझे प्रेम के रिसते ख़ून की गंध मिली।
ये कैसी अजीब गंध थी,
जिससे मिलकर ही
मैं मिल पाया
तुम्हारी बेपरवाही के कई सारे ज़िन्दा सबूतों से!

तुम नहीं आयी शहर के किसी व्यस्त बाज़ार में
जहाँ घूमता रहा मैं बेचैन
तुम्हारी नर्म यादों की बेसब्र
ख़रीदारी में,
मैं अकेला ही तुम्हारे कोलकाता में
जाने क्यों फिर भटकता फिरता रहा इस बार भी!

उलझा हुआ था जब
मैं सिगरेट के उन्मादी कशों में
तुम्हारे धुआँ- धुआँ शहर की तरह,
तुम्हारी दोस्त रूना हसन मुझे बड़े से पुल पर सिसकती मिली,
उसने क्या नहीं खोया उसके अपने शहर में
पर मिला उसे भी नहीं,
वो जिसपर सब लुटाकर
वहीं अपना नया शहर बसाना चाहती थी!

मैं सुन रहा था,
कि तुम ख़ुद बेवफ़ाओं के इस शहर में कहीं बुत तो नहीं बन गयी,
कैसे इन फ़िज़ाओं में साँस लेती हो तुम झुम्पा, कहो न?
तुम्हारी मुहब्बत की उम्मीद से ज़्यादा फिर मुझे
रूना हसन ने ही
तुम्हारी हिफ़ाज़ती के संभावित कशीदे सुनाए,
तब, जबकि वो ख़ुद टूटकर बिखरी हुई थी।

एक पूरी रात फिर अख़बार ओढ़कर ही
मैं प्लेटफार्म पर भूखा सोया रहा,
प्यास नहीं लगी एक बार भी मुझे,
मेरी ज़ेब में पैसे थे,
बैग में तुम्हारे शहर के मशहूर छह बड़े पके अमरूद
लगातार उल्टियों जैसी दुर्गंध मारते रहे थे,
और फिर मैं लौट आया!

बहुत सुन रखा था मैंने,
तुम्हारे बड़े से शहर में मिलनेवाली
सुनहरी और पागल उम्मीदों के बाज़ार को
मैं वहाँ भी तो गया
कई दफ़े प्रेम में मिलनेवाले बुख़ार से तिलमिलाकर,
और विरह से उपजी वर्जनाओं को लाँघकर
पर इतनी छोटी बात नहीं समझ सका-
मेरी किसी ख़रीदारी में
भौतिकता का वैसा सामर्थ्य नहीं था,
जो मुझे- तुम्हें एहसासों के हिसाब- क़िताब का
पक्की रसीद- सा कोई आश्वासन ला दे,
और, मुझे कहीं अपनी ज़मीन पर लौट जाना भला- सा जान पड़ा, झुम्पा!

मैं चला आया, तुम्हारे शहर में
अपने प्यार के सारे अधूरे अरमान छोड़कर,
मैं तब भी चाहता रहा
अगर तुमने सोचकर कभी की हो
तो तुम्हारी बेवफ़ाई पर
कोई मज़मून या दायरे तय कर लूँ,
मुझे तुम्हारे साथ में मिलनेवाले सहारे के लिए
रिश्तों के ज़हर को उगलना हर तरह से जायज़- सा जो लगा।

तुम्हें पढ़ते हुए मैंने फिर भोर की तेज़ धूप देखी,
जिस चिलचिलाती उष्णता में
प्रेम की कोई गन्ध यकायक किसी सीने में बहककर फैलती है,
ऐसे ही किसी स्याह रात में भी
तुममें उलझा हुआ मेरा मन अजनबी हो जाता है
और नीन्द से निकलने वाले
लाचार सपने
सिसककर मन की गुफाओं में अब सो जाते हैं
मैं कुहरे और धुंध में कंपकंपाकर भी फिर
तुमपर ही बेकार सी कविताएँ लिखने लग जाता हूँ,

तो तुम क्यों नहीं मानती, झुम्पा गांगुली
बेवफ़ाओं के शहर में
तुम कम से कम आधी बेवफ़ा तो हो गयी हो!***


                      ✍© अमिय प्रसून मल्लिक.

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