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शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

मैं जब- जब...


मैं जब- जब तनहाइयों में आहें भरता रहा,
तुम रंगीनियों की दुनिया में मगन रही ।


कैसे किया तुमने कभी मुझसे मुहब्बत का दावा,
कैसे सदियों से मुझे तुम झुठलाती रही हो !
मेरे लिए तेरी मुहब्बत का हसीन-सा तोहफ़ा है,
मैं आँसू पीता रहा और तुम इठलाती रही हो ।


मैं समझ नहीं पाता मेरे लिए तेरी मुहब्बत को
तेरी मुहब्बत में कोई दर्द हो या कोई भाव ना हो,
पर तुम किसी से प्रेम करने का कोई वादा न करना
मैं दीवाना बुझा लूँगा, मेरे भीतर अब जो भी अगन रही,


मैं जब- जब तनहाइयों में आहें भरता रहा,
तुम रंगीनियों की दुनिया में मगन रही ।


क़ायल हो गे मैं तेरी मुहब्बत का रुप देखकर,
फिर क्यूँ न तुझे अपनी पाक नज़रों पर रखूँ !
चलो, माना ये बेरुखी हलाहल है मुहब्बत का,
तो क्यूँ न इसे मैं जीते- जी बेबाक चखूँ !


मैं टूटा तारा, अपनी रोशनी कभी न खोएगा
और मेरा मायूस मन बेबसी में भी न रोएगा,
पर खेलता रहा मैं जब- जब अपने गर्दिश के तारों संग,
तेरी क़िस्मत के सितारों की तब भी बनी लगन रही,


मैं जब- जब तनहाइयों में आहें भरता रहा,
तुम रंगीनियों की दुनिया में मगन रही ।



- "प्रसून"

2 टिप्‍पणियां:

पार्थ जैन ने कहा…

मैं समझ नहीं पाता मेरे लिए तेरी मुहब्बत को

तेरी मुहब्बत में कोई दर्द हो या कोई भाव ना हो,

पर तुम किसी से प्रेम करने का कोई वादा न करना

मैं दीवाना बुझा लूँगा, मेरे भीतर अब जो भी अगन रही,


ये पक्तिंया मुझे बेहद पसंद आई

pragati haldar ने कहा…

I truly liked your creation...very nice..