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सोमवार, 1 अक्तूबर 2007

*** ठेलावाला ***


धुंधलका- सा ये माहौल
सारा जहाँ है खुशगवार
अन्तर्द्वन्द्व अँगड़ाइयाँ लेते हुए

तिपहिये पर है सवार ।


ये जहाँ और वो जहाँ
ख़ुद न मालूम मैं कहाँ
चार बोरों के बोझ पर
कब यहाँ, कब वहाँ !


दिन ढले जब लौटता
खुद की खातिर कुछ न सोचता
नयी सुबह में फिर निकलकर
वही पुराने घाव नोचता ।


तारे गर्दिश के मेरे न टूटे
किस्से सारे हो जाए मेरे झूठे
बस, यही तमन्ना रह गयी बाक़ी
साथ अपनों का कभी न छूटे ।


अब न मुफ़लिसी पर रोता रहूँ
इसी झुग्गी में हरदम सोता रहूँ
ज़माने को भी है मुझसे उम्मीद-सी
कि बस अपनों में ही खोता रहूँ ।




- "प्रसून"

3 टिप्‍पणियां:

रंजू भाटिया ने कहा…

अब न मुफ़लिसी पर रोता रहूँ
इसी झुग्गी में हरदम सोता रहूँ
ज़माने को भी है मुझसे उम्मीद-सी
कि बस अपनों में ही खोता रहूँ ।

sach aur sundar likha hai apane

pragati haldar ने कहा…

MARMSPARSHI' hai yeh rachna aapki..
bas yahi kehna chahungi main..

Kuwait Gem ने कहा…

is kathi dor me bhi apne rachnatmakta(creativety)ko bacha kar rakha he .aap beshak tarif ke kabil ho.keep it up.chandrapal