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रविवार, 14 अक्तूबर 2007

ग़ज़ल


अभी वो कमसिन है, अभी उसका उभरना है बाक़ी।
थोड़ा निखार आया है उसपे, थोड़ा और निखरना है बाक़ी॥



राह-ए-इश्क़ की ठोकरें वो सुनता आया है ज़माने से
इस बेज़ार रहगुज़र पे दिल उसका मचलना है बाक़ी।


माना कि कम है ये ज़िन्दगी मुहब्बत की खातिर
तूफाँ-ए-प्यार के लिए इक चिंगारी का निकलना है बाक़ी।


जाने क्यूँ ढूँढते हैं चराग लेकर अपनी मुहब्बत को
गम-ए-इश्क़ में दिल के टुकड़ों का बिखरना है बाक़ी।


कल महफ़िल में बेहिसाब पी ली सोहबत के नाते
आज किसी फ़रमाइश पर 'प्रसून' संभलना है बाक़ी।



- "प्रसून"


[शब्दार्थ: कमसिन = कम उम्र का; सोहबत = दोस्ती.]


1 टिप्पणी:

रंजू भाटिया ने कहा…

जाने क्यूँ ढूँढते हैं चराग लेकर अपनी मुहब्बत को
गम-ए-इश्क़ में दिल के टुकड़ों का बिखरना है बाक़ी।

beautiful bahut khub ji
badhaai

ranju