थी इस रिश्ते की
शुरुआत कुछ अलग- सी
पर क्या अब तुम भी
जगती हो
रात- रात भर मेरी तरह?
पकड़कर हाथ मेरा चलना
तुम्हारे 'स्वप्निल अरण्य' में
क्या रास आने लगा है तुम्हें भी?
आगाज़ की बातें छोड़ो
अंजाम की बातें छोड़ो
इस बीच को खूब जीयो
और साथ में मुझे भी जिलाओ
मैं निराश ज़िन्दगी से
भटक- भटक कर ताकता हूँ
बस, बेबर्दाश्त अंजाम की और
यह मैं नहीं
मेरी प्रवृति का अंदाज़ है
मैं खोना जो नहीं चाहता
तुम्हें किसी शर्त पर
तुम्हीं तो वो हो
जो दे सकती हो साथ मेरा
या कर सकती हो
कोई सज़ा मुक़र्रर,
क्यूंकि प्रेम करना
है कोई गुनाह अगर
तो गुनाहगार हूँ
मैं तुम्हारा!
- "प्रसून"
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