उसकी उम्र ज़्यादा नहीं
पर क्या है कि
मन- ग़रीबी और वक़्त की मार से
उसने बुढ़ापे का
असमय ही
लबादा डाल रखा है.
उसके हाथ
तब पीले हुए थे
जब उसने जाना नहीं था
कि अपनी ही बगिया में
कैसे बनमाली ने
फूलों को
कुचलना सीखा है
और जिसकी असह्य वेदना
इस कसमसाती कली में
उसने तबीयत से
चस्प कर दिया था.
वो हैरत में थी तब
और इसी हैरानगी में उसने
अपने सपनों का
सिसकना मंज़ूर किया था
जिसे वो आज भी
'मेरे अपने' का
संबोधन देती है
उन्हीं अपनों ने उसे
तब जीवन के इस
मलीन सच से सामना कराया था.
तबीयत उसकी आज भी
उस आग़ाज़ को भाँपने में
रात- दिन बेचैन है
कि जिसे उसने छोड़ रखा था
वहाँ कुछ था क्या
जिसकी पीर अब आज
उसके मन- घाव का
उसे मवाद दिखता है!
जिस बगिया में उसने
चहकते हुए फ़ाख्ते की
अबूझ किलकारियाँ सुनी थी
और जिसके ग़ुलाब
खुश्बुओं में रहे थे झूमते
वहाँ उसने आज
एक चीत्कार महसूसा है
और पाये हैं
कुछ टुकड़े उस गुलदान के भी
जिसमें कभी
वो अपने अपनों के संग
जाने कितनी ही
कलियाँ सजाती रही थीं.
आज उसके ज़िन्दा होने का
जब उसे पुरजोर भान हुआ है
हर तरफ़ उसे
काँच के अनगिनत टुकड़े
चुभन पैदा कर रहे हैं,
और कर रहे हैं अट्टहास
सारे गुल पत्तों के संग
कि कभी जिसे भोलेपन में वो
नुमाइश के लिए
उसके वक़्त, उसके समय में
आने न दिया.
वो जाने क्यूँ हैरान है
कि 'जीना' उसका अब है
इन अनपेक्षित फूलों-सा
या कि जीना वो रहा था
जिसका दम्भ भरकर
वो कभी,
इस अनजान सफ़र में
इतराने निकल पड़ी थी. ***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
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