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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013





             *** तुम ***

जब तुम हँसती हो
खिलखिलाकर मेरे सामने
मेरे नस- नस में
तेरा प्यार छा जाता है
और सिवाय मुस्कराने के
मैं कुछ भी जवाब नहीं देता.
जाने- अंजाने इसे तुम
उड़ा देती हो हवाओं में
फिर हम आ जाते हैं
उस सूनी जगह पे;
जहाँ सिवाय तुम्हारी आहट के
और तेरा कुछ भी नहीं होता.


मैं तब भी नहीं समझ पाता
कि बातों- बातों में उलझाना
मैने ही सिखाया था तुझे.
सच तो यह है कि
साथ मेरा पाकर,
हो जाती हो तुम भी रोमांचित.


है तुम्हारी ओर से कुछ
या सिर्फ़ मेरा भरम,
इसे न समझने का उपक्रम करना
मैने सीखा है तुझसे.

शायद धोखा था वो बस
मेरी ही आँखों का
जिसे सब कहते हैं एहसास,
उसी चीज़ के मूर्त रूप की
मैने ख़्वाहिश कर ली!


तेरी परछाइयों को छूना भी
इक ख़्वाहिश से कम नहीं है
इस नादान के लिए
फिर भी इस खेल में
जाने कैसी- कैसी
होती रही बेवकूफ़ियाँ!


ज़रा इतना सा बताओ
मेरी नादनियों को छिपाने का
अब कुछ बहाना दोगी तुम,
या डाल डोगी परदा
इस बात पर भी हँसकर?***


       --- अमिय प्रसून मल्लिक.

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