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गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

 *** जब तुम्हारी... ***




मैं पत्तों से हरे रंग निचोड़ूँगा,
दर्द को और हरा होने दूँगा
होने दूँगा मैं,
उजाले का फैलाव हर ओर
रोशनी में मुझे हर ज़ख़्म देखना होगा,
ढूँढा करूँगा मैं
सिर्फ़ रोती हुई आँखों को
मुझे महसूस करना होगा,
हर सम्भव दर्द
गोया सारी वजहों का मूल
फिर मुझे ही खोजना होगा,
जब तुम्हारी कमी महसूस होगी...!


मुझे जागना होगा
ऊंघती आँखों के साथ
कई आँखों में मुझे तब सपने डालने होंगे
हर आह पर सिसकी तब मैं ही भरूँगा
सूखते पलाश से बेमौसम माँगूंगा रंग,
कई ज़िंदगियों में जो देखनी होगी लालिमा
मुझे लेना होगा चिड़ियों की पुकारों का क़र्ज़
कुम्हलाती कलियों का फिर मैं ही लूँगा साथ,
तेरे अस्तित्व को हर ओर से मुझे
रोशन ही रखना है,
जब तुम्हारी कमी महसूस होगी...!


शब्द मेरे जो अंगारे बनेंगे,
तेरे न होने पर,
शब्द मेरे जो फुहारें बनेंगे
जहाँ के दुख- दर्द का करेंगे ख़ाका तैयार
फिर मैं ही शब्द- शिल्पों की
दे- देकर तिलांजलि
बनूँगा कृत्य का हिमायती
रोती आँखों पर मलाल तो होगा, पर
कँपकँपाती कलियों का प्रस्फुटन बनूँगा
मेरी आहें अपनी ही सिसक़ियों पर
थपथपाएँगी अपनी पीठ
कि तेरा मेरे पास न होना भी
कई मायनों में सार्थक हो जाएगा,
जब तुम्हारी कमी महसूस होगी...!***

    
                  --- अमिय प्रसून मल्लिक.

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