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शनिवार, 16 नवंबर 2013
*** ज़िन्दा जो हूँ मैं... ***
हाँ, देखो न
तुम रूठ- से गये थे
उन एहसासों का देकर हवाला
कि मैं सादगी की हक़दार जो थी,
जाने कितने ही दफे
तुम्हारे बिखरे उन्माद के
उस तार- तार शामियाने में;
और फिर भी भूखी- सी मैं
यूँ ही निगलती रही
तेरे प्रेम की रसोई मे पकी
केवल वो तिरस्कार की तरकारी.
तेरी मायूस ख़ामोशी का
कभी न रुकनेवाला
जो तुमने सिलसिला सौंपा था,
यहाँ अन्दर के धधकते हुए
कितने ही ज्वलंत सवालों से
रह- रहकर मैंने उसे
हर रोज़ ही रोशन किया,
और करती रही पोषित
उसके हर दरकते सम्भाग को,
तेरी ही अंगीठी की पिलाकर
उस अधपकी दुत्कार की दाल से.
आज तेरा यहाँ ना होना भी
मेरे बिखरे हुए वजूद का
वो अभूतपूर्व मुक़दमा है
जिसकी हर सुनवाई पर
मेरी मौजूदगी,
सिसककर दम तोड़ती है;
वो मेरे सब्र के आईने में छिपा
कितना ही बेक़सूर- चिकना
तेरा चेहरा मिले, पर
मैं तो अन्दर तक अब
रूखी हो गयी हूँ,
खाये हैं जब से
ख़यालों में ही जी भरके
तेरे अपमान के अनाज. ***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
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