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रविवार, 8 दिसंबर 2013

*** तुम ***




सच है यह
कि तुम मेरी अपनी हो
पर तुम्हारा अपनापन
डराने लगा है मुझे.
तुम मानो, न मानो
मेरी हर साँस में
बस चुकी हो,
तुम और सिर्फ़ तुम
पर क्यों तेरी साँसों की
अब बर्दाश्त नहीं कर पाता
मैं थोड़ी- सी गरमी!


डर-सा मुझे लगता है
इन ठण्डी हवाओं से भी
आ जाती है जो बहककर
इनमें ख़ुश्बू तेरी;
पहले इसकी मादकता में
भरा करता था
मैं ही आह,
अब मेरी हर आह
तस्वीर ही तो है
मेरी मायूस टीस की.


तुम मत समझो इसे,
तुम नहीं समझोगी इसे
तुम्हें बस उस सिहरन की
पाक क़सम है
जो कभी अनजाने में
मेरी वजह से
तुमने महसूस की--
जब दरकने लगे
तुम्हारा दिल टुकड़ों में
किसी मनचाहे के सबब;
तुम मुझे महसूस कर लेना
अपने ही आस- पास,
अपनी ही प्रतिच्छाया में!


मैं तब भी नहीं कहूँगा
कि खेलना जानती थी तुम,
खेल तो क्यूँकि
जिसे कहते हैं सब,
शुरू किया था मैंने
तुमने तो साथ देने को
बस एक- दो दाँव खेला,
लत तो मुझे लग गयी
हार- हारकर हमेशा
फीकी हँसी दिखाने की. ***


               --- अमिय प्रसून मल्लिक.

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