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गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

*** ये मैं क्या करता हूँ...! ***





हर रोज़ ही तुम
अपने किए वायदे भूलती हो
हर रोज़ की तरह,
तुम्हें मना लेने को
मैं नये उसूल कायम करता हूँ.

हर रोज़ ही मुझपर
तेरी नाराज़गी जवाँ होती है
हर रोज़ ही मैं
सिसककर दम तोड़ते हुए
तेरे परवाज़ में जान फूंकता हूँ.

हर रात की तरह
तेरे अन्दर मेरा ग़म स्याह होता है,
हर दिन उजाले- सा,
तुझे संभालकर
अपने अन्दर नयी सुबह करता हूँ.

हर बार की तरह,
तू नाराज़गी में यही कहती है
'अब और आगे कहो!'
और मुस्कराकर तब मैं
'अब और आगे' कह जाता हूँ.

हर बार की तरह,
'ऐसा कहने को नहीं कहा'
तब तुम ऐसा कहती हो,
हर बार फिर मैं
अपनी ही अदाओं पे
मौजूँ होकर मुस्कराता हूँ.

हर रोज़ की तरह फिर
तुम अपनी कही बातों से मुकरती हो,
हर रोज़ ही तुम्हें पा लेने को
मैं तब भी नये आयाम ढूंढता हूँ. ***

               --- अमिय प्रसून मल्लिक.

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