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गुरुवार, 12 दिसंबर 2013
*** पापा ! ***
क्यों आपने मुझसे
कुछ लगायी थी उम्मीद
क्यों पुचकारा करते थे इस क़दर
जैसे आपके,
जिगर का टुकड़ा रहा होऊँ!
मुझे याद है अब भी;
ख़ाली रहती थीं आपकी ज़ेबें
फिर भी मेरी ज़िद पे
कई बार ले गये थे
नत्थू चाचा की दूकान पर,
मैं बैठता था आपके
बाएँ कंधे पर,
क्योंकि दाहिनी ओर
खुजली थी आपको
जिसे देखकर मैं
तब सिकोडता था नाक- भौं,
फिर खरीदकर देते थे
जाने कितनी ही टाफ़ियाँ!
तब मैं नहीं समझ पाता था;
क्यूँ लौटते हैं आप
रात को दो बजे घर
बहाना करते थे,
'बेटा, ओवर टाइम कर रहा था'
और मेरी समझ के बाहर थी
आपकी ये अँगरेज़ी.
और न जाने
ऐसी कितनी ही बातें
जिन्हें याद करना,
और रखना भी
मेरे ज़ेहन को
आज मंज़ूर नहीं!
मैं समझ क्यूँ नहीं पाता,
क्या ज़रूरत थी
रात- दिन एक करने की
तब मेरी,
इस ज़ालिम पढ़ाई की ख़ातिर,
क्यूँ नहीं किया आपने इसका ख़याल,
कि बन जाऊँगा मैं
कभी बेतहाशा व्यस्ततम!
पता नहीं,
आप कहाँ- कैसे हैं,
मैं आज,
इतना भी तो नहीं जानता! ***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
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