शुक्रवार, 21 मार्च 2014

*** देखो, चाहे जो हो...!***



उसे लगता है कि
उसने पा लिया है किसी को
प्रेम के अपने इस
अथक उन्माद के सफ़र में,
यूँ कि उसने रोज़ ही
हर सम्भव मौजूदगी
उसके आगमन पे दर्ज़ की है,
और किया है अनुसरण
स्थापित आस्थाओं की हर शर्त को
पर जो गुम गया दरम्यान इनके
वो उनके प्रेम- पाठ्य का
कभी सार्थक पद्यांश रहा था.

उसने अपने प्रेम को
जिन सीमाओं से उसके लिए
गढ़ा है भुलावे में आकर
और जितनी जगह में
उसने ख़ुद को भी अक्सर
जिन मूल्यों से बंधेज किया है;
पर जो गंतव्य में गोचर था
वहाँ उसने उससे ख़ुद को
रखा था दरकिनार करके
सो, ख़ुद के ही जने अर्थों में उलझकर
रिश्तों की हर मोड़ पे
वो बेचैन- सी दुहाई देती रही है.

आज जीवन- अर्थ में फँसकर
वो तब समझ पायी है
मांग और आपूर्ति के बीच का
कभी न पाट सकने वाला
वो दर्दनाक- सा फ़ासला,
और उनसे ही उपजी हुई
मुहब्बत में मीलों की दूरियाँ
जिन्हें उनके गुरुर ने अरसे तक
चस्प कर अपने चेहरे पर
अब अबूझ झुर्रियाँ जनी हैं.

उसे अब भी लगता है,
वो उसकी प्रेम- परिधि में
खिलखिलाकर आह भरता है,
अपने दावों के संसार से चुनकर,
जो उसकी ही काँटों की सड़क में
सैकड़ों सांसारिक पड़ाव रहे हैं
उनसे होकर ही कभी
उसे अपने प्रेम का प्राप्य होना था
जिसे वो चौंक कर भरसक
अपनी बेबसी न भी माने
पर वो जीती ही रही इक उम्र तक
प्रेम के झूठे संसार में सम्भलकर...!***
    
          --- अमिय प्रसून मल्लिक.

1 टिप्पणी: