शनिवार, 29 मार्च 2014

*** जब प्रेम धधक उठेगा ***



देखो, मैंने कहा था
दुनिया इसे फिर भी प्रपंच ही कहेगी
हो चाहे जो भी कहानी में
होगा वही अकुलाकर आखिर,
जो सदियों से हमारे, तुम्हारे, सबके लिए
चलता ही रहा है निर्बाध
प्रेम के जिस डूबते पुल से होकर
कभी हमारा भी नेह आर- पार हुआ था
वो वक़्त की ही तपती
लहरों में झुलसकर,
अपनी असह्य बुनियाद में
इक टीस के साथ अब कसमसाता है.

जिसे तुम आज
मानवीय मूल्यों का चीर पहनाकर
सबके साथ मिलकर ही
ख़ुशियों से अपने भीतर
बिना शर्त के चस्प कर लेती हो
उसके नेपथ्य में तुम ही कभी
हज़ारों सुर्ख कलियों को लेकर
ख्वाब- सा सजाती रही थी,
पर जो अवश्यम्भावी है
उसे कौन, कब टाल सका है ज़मीं पर!

कहता हूँ मैं,
बेहतर हैं जीवन के असंख्य
वही भाग- दौड़ के तौर- तरीके
जहाँ वादाओं का कभी
कोई हरण नहीं होता;
और होती है
किसी स्थापित मूल्यों के हनन की चिंता,
मानो, ज़िन्दगी में किसी से
प्राप्य की कोई उम्मीदें होती ही नहीं
सो, क्यूँ होने लगेगा तब,
दर्द इस मौन मुखड़े को
हमेशा के लिए अपना मानने में!

वो जो तथाकथित प्रेम का
हम सदा से बिगुल फूँकते हैं,
वहाँ एक जीवन्त वेदना ही
अपना स्वयं सिद्ध संसार होता है
ऊँघती आँखों को मलकर फिर
हम, तुम, सब जब नीन्द से जगते हैं;
अपनी चरम पे पहुँचकर
प्रेम भी तो मलीन होकर
अपनी दुर्जेयता के भरम में
ज़ोर- ज़ोर से हुँकारता हैं
सो, सुप्त पड़े इस भाव का
यही सबसे सार्थक सत्य है,
किसी उन्मादी पताका की तरह,
नहीं तो हमारा अहम भी,
इक दिन लहरा उठे.***
    --- अमिय प्रसून मल्लिक.



1 टिप्पणी: