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शनिवार, 8 मार्च 2014
*** वो सोच में गुम है...***
उसने कहा जब
अपने अबूझ शब्दों को फैलाकर
तुम अब कुछ भी लिखते क्यूँ नहीं,
जो रात- दिन तुम्हारे अन्दर
मेरे अंतर्द्वंद्वों- सा ही
घुमर- घुमरकर
खुले अम्बर में अब
उन्मुक्त पसर चुका है!
कहा उसने बेबाकी से
कि कहो न,
तुम क्यूँ अपने भीतर
उन ज्वलंत घेरों में
उलझे- उलझे से
जिए जा रहे हो
उस मलीन सच को
कि जहाँ तुम्हारा मर्मभेदी अस्तित्व
तुम्हारे जीवन- घाव के
गर्म सुर्ख लाल घेरे बने है!
उसके यूँ महसूस करने की
जो हवाएँ उफान पे थीं
और जहाँ प्रेम के पृष्ठ
अपने सिसकते सार्थक शब्दों को आतुर रहे
वहाँ तिरस्कार से उसने ही
अब हज़ारों ही दर्द जने हैं
और अन्दर की दरकती
एक मासूम मायूसी
अपने होकर कुछ न 'होने' को
व्याकुल तड़पती रही!
इस सिमटते हुए संसार में
आज जो गाम्भीर्य लाचार है
और उसकी तंग शिकायतों के
यहाँ वाक्यों ने विन्यास गढ़े हैं
और जहाँ उद्वेलित मन की
कई रहस्यमयी मीनार खड़ी हैं
उसने जाने फिर क्यूँ
बेशर्त तय कर लिया है
अपने अनुरोधों का ही
अचंभित- सा बलात् समर्पण.***
--- अमिय प्रसून मल्लिक
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3 टिप्पणियां:
सुंदर सोच, शब्दों का अनूठा तालमेल! कुल मिलाकर एक बेहतर एहसास! आपकी लेखन-शैली काफ़ी अलग है, पर बहुत भाती है :)
Shukriya 'Agyaat' !
- A.P. Mulliick
बेहतरीन !!
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