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रविवार, 29 जून 2014

*** रोज़ तुम्हें जीती हूँ... ***



जब तुम आये थे
मेरी रगों में
किसी ऊँघते ख़्वाब का लहू बनकर
मैं तब भी हैराँ
भाव की उस सेज़ पर सोती रही
जहाँ तुम्हारे 'होने' के
जाने कितने ही बेचैन मायने
मेरी उनींदी आँखों से
मुस्कराकर मुहब्बत में गुम थे.

तुमसे चाहत की
कभी जो चादर रंगीन हुई
और तुम्हारे संसर्ग की ख़ुश्बू
पूरी हवा में चस्प रही,
वहाँ तेरे अनचाहे अतीत का
अब बेहिसाब लेखा- जोखा है
और जो टूटता- बुझता कहीं
मेरी ज़िन्दगी के गर्भ में
अब भी साँसों से संचालित है
उसको ख़ुद पे थोपने की
आज मेरी मंशा मलीन है.

तुम देखो ज़रा,
तुम्हारा चले जाना भी
अपने- आप में इक युग- सा रहा है
कि जिसके सिमटे हुए पलों में
कोई मायूसी खड़ी है,
और ही रुलाकर तोड़ देनेवाली
तुम्हारी यादों के दरम्यान,
समन्दर- सा उफनता
किसी टीस का व्यापक संसार पसरा है.

आज सोचती हूँ,
तेरी यादों के सुलगते मर्म को
तेरी ही बेपरवाहियों से छानकर
कि जिस आग़ोश में तुमने मुझे
कभी क़ैद किया था;
वहाँ अब तेरे साए का
शायद ही कोई क़तरा ज़िन्दा हो
पर रोज़ ही बुझाकर बत्ती
रात के स्याह अँधेरे में
मैं बिस्तर से आलिंगन का
ये उन्मादी दम्भ जीती हूँ,
कि हाँ इस कमरे  में कहीं
जैसे आज भी तुम रहते हो.***
           
                 --- अमिय प्रसून मल्लिक.


(Pic coutesy- Painting of Shazida Khatun @ Google with utmost thanks!) 


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