हाँ, तुम ही
कहती थी
शोषण बस हमारा,
और इच्छाओं से पटी
हमारी देहों का ही
होता है…
तेरी मदमाती इच्छाओं से
मेरे वजूद में
नेह का
चीखकर यों चीर हरण हुआ
है
जैसे मैं तेरे
रोज़मर्रे की
कोई बिन बुलायी
ज़रूरत होऊँ;
जब तेरी उन्मादी
ख़ुश्बू से
मैं रोज़ ही
अपनी ज़िन्दगी में
दोयम दर्ज़े के
कई बदनाम पहलू गढ़ता
रहा.
मेरी आँखों की बेचैन
नींदें
तब तेरी गदरायी
रातों में
इतराकर जवाँ हुई
थीं;
सारी दुनिया में जब
स्त्री- विमर्श पर हज़ारों
क़िस्से उफान पर
थे,
फिर भी संभ्रात
वर्गों की दुहाई
से
आलोचनाओं के बौद्धिक
संसार में तुझे
हमेशा मैंने ज्वलंत मुद्दा
बनाए रखा.
हुआ होगा हनन
सदियों से
दुनिया की नज़रों
में
हर बार ही
तुम्हारी संवेदनाओं का;
और हर बार
ही तेरे वजूद
को
आदम ने जमकर
लीला भी होगा;
पर अपने स्वप्निल
रातों का
दम घोंटकर बहुधा
हम पुरुषों ने भी
कभी तो
अपनी ही मलीन
मुहब्बत का
बलात् आलिंगन भोगा है.
सो, तेरी भी
हर रात जवाँ
हो,
मेरी ही चाहत
की कसौटी पर;
ऐसी भी मैंने
कभी कहीं,
न कोई शर्तें
जनी थीं.
गोकि भूख तो
दैहिक हो,
या कि तेरे
प्रेम के वशीभूत
उपजी,
देखो, तेरे प्यार
की
नश्तर- सी चुभनेवाली
आकांक्षाओं से
बड़ी तबीयत के साथ
मैं,
आज फिर गोद
दिया गया हूँ!***
--- अमिय प्रसून
मल्लिक.
(Pic courtesy: www.google.com with thanks!)
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