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शनिवार, 2 अगस्त 2014

*** शब्दों की सिलवटें...***



क़िताब खोलकर आज
तुम्हें पूरा पाया है मैंने,
इन इबारतों में नज़ाकत से तुम
रचे- बसे हो कुछ यूँ,
जैसे लफ़्ज़ों को तराशकर
एहसासों की बिखरी हुई ज़ुम्बिश ने
तुम्हारी चाहतों में आतुर- सी
नए मायने रंग रखे हैं.

वो तुम्हारी मदमाती काया को

इन्हीं सार्थक शब्दों में
बलखाते हुए मैंने अकसर
बदलते छंदों संग
आज फिर पूरी तरह पाया है;
और तेरे संग बेनाम रातों की
सारी सर्द सिलवटें यहाँ
बड़े ही स्पष्ट,
विराम चिह्नों से तुमने
इस काव्य में नग- से जड़ी हैं.

आज जो तेरी देह की

उच्छृंखल गंध में डूबे
उस प्रेम का ये काव्य गोचर है,
उन्हीं भावों से समेटकर
यहाँ जीवन विन्यास का
मेरा अतुकांत मर्म स्वयं जना है,
और तेरी अर्थ विहीन मात्राओं से
मेरी ज्वलंत कथाओं का
पुनश्च एक पटाक्षेप सम्भाव्य है.

देखो न,

मैं असंख्य पुंजों में तेरी कविताओं के
शब्दों का अन्वेषण करता रहा हूँ,
और काव्य के झुलसे रहस्यों में ही
अपनी बलवती इच्छाओं का
तेरे शब्द- बाण से सरेआम
तुच्छ नीलामी की गाथा गढ़ता हूँ;
कि 'गर सको तो कभी तुम,
मेरे पन्नों के हाशिये पर
मेरी आदम वासनाओं की भी
कोई नृशंस मौलिकता जड़ देना !***
       
                     --- अमिय प्रसून मल्लिक.

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