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मंगलवार, 5 अगस्त 2014
*** ग़रीब की कविता ***
मेरे दोस्त ने कहा,
कि यार एक कविता यों लिखो
अब ग़रीब आदमी पर, और
उसके कथानक में,
चाहो तो मुझे ही जड़ देना...
लिखना, कि वो
घंटों बस की बाट जोहता है;
और झोंकता है अपना दर्द
इस ख़याल को दबाने में
कि मिलेगी जगह बस में उसको
या कि घर में
ख़ुद की दशा महसूसने का
उसी कुचल देनेवाली भीड़ में
उसे फिर एक और मौका मिलेगा!
यह भी लिखना कि
वो घंटों अपनी ज़ेब की चिन्दियों को
इस ख़याल में जोड़ता है
कि भरसक खरीद पाएगा वो
आज सुर्ख लाल टमाटर को
या कि उसकी लालिमा भर से
अपनी तरकारी में आज
गाढ़े रस के तीखेपन को
बस झेंपकर फिर चख लेगा!
तुम क्यूँ हमेशा लिखोगे,
बस उन्हीं दुर्दान्त भावों को ही
अपने अबूझ शब्दों से पिरोकर!
कहो न,
कि तुम इस बार लिखोगे
उस ग़रीब की कभी न मिटनेवाली
उन अतृप्त इच्छाओं को चुनकर
कि जिन्हें वो महीने की पूरी
जमापूँजी से भी कभी
दम भर खरीद न पाया.
उसने कहा था,
कि यह भी देखना,
कहीं ऐसी भावनाओं का
काव्य में कोई मज़ाक न बने,
और न कहीं शब्दों का
तुम स्वार्थवश हेर- फेर ही कर लो
कि तुम जो चुनते रहे हो
उन्हीं शब्दों से मेरी कथाओं में
उस ग़रीब का सुसुप्त भाव भभक कर जगे,
जिसमें मैंने कभी- कभी
ख़ुद को सिसकते हुए पाया है.
देखो, कोई श्रृंगार रस न देना
और न ही मेरे उस ग़रीब की
किसी छवि को
कहीं छायावाद की छाँव की किन्हीं,
दबाना झूठी दिलासाओं से;
क्यूँकि शब्द तो यहाँ भी थे,
हाँ, मुझे ख़ुद से ही
भावों से भरे तेरे शब्दों से
अपना क़द नहीं बढ़ाना,
कि जो तुम सको,
वही सब लिखना सबको दिखाकर
कि ग़रीबी अपने- आप में
अमीरों की चमकती बुलंद इमारतों का
हरदम एक ठोस धरातल रही है...
लिख सकोगे... तो ही लिखना!***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
(Pic courtesy--- www.google.com with utmost thanks!)
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