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रविवार, 7 सितंबर 2014

*** हाँ, तुम यहीं हो...***





वक़्त की धूमिल चाँदनी में,
तुम्हें मैंने
नहाते देखा है,
अपनी बेसुध ज़िन्दगी के
सारे रंगों को यूँ फैलाकर,
कि शायद तुम्हारा भरम भी 
अपनी अलग पहचान लिए
खुलकर बेबाक जीने लगा हो.

तुम तो रचे- बसे रहे,

मेरी ज़िन्दगी के हमेशा
मानो सारे पहलुओं में;
जब मैं तेरे रोज़मर्रे की
उसी 'पॉलिथीन'- सी हो गयी
जहाँ तुम्हारे निषेधात्मक क़ानून की
हर छद्म सज़ा भुगत कर भी
तुम और तुमसे जुड़ी
तमाम बातों में
मैं अपनी पैठ चाहती रही.

हज़ार ऐसी स्याह रातें

कि जिनमें तुम्हारे संसर्ग की
बेचैन सिलवटें दर्ज़ हुईं,
और तमाम शिगूफ़े
उसी तथाकथित मुहब्बत के
मेरे मोहल्ले में सरे-ज़ुबाँ हुए,
जिसमें हमने इक- दूसरे का
कभी न मिटनेवाला
अनैच्छिक सीमान्त उकेरा था,
और करता रहा पुरजोर दोहन
सिसकते हुए उन्हीं
सारे ज्वलंत एहसासों को एकमुश्त.

आज न तुम हो,

और न ही,
तुमसे जुड़े किन्हीं बेचैन नग्मों का
यहाँ सिलसिला ही बचा है,
जो तुम्हारी सर्द होती यादों से
मेरा कोई निर्णायक साक्षात्कार ही कराए.

ख़यालों की दरकती हुई पर

इमारतों में जब भी
एकटक निहारती हूँ,
हर कोना तेरे ज़िन्दा वजूद से
कुछ यों सलीके से पटा हुआ है
जैसे कहीं न होकर भी,
हाँ, इस कमरे में
तुम हर जगह विचरते हो!***

       --- अमिय प्रसून मल्लिक.

3 टिप्‍पणियां:

Kailash Sharma ने कहा…

दिल को छूते बहुत गहन अहसास...बहुत मर्मस्पर्शी...

अमिय प्रसून मल्लिक ने कहा…

आप सबका दिल से शुक्रिया! मैं अपनी व्यस्तता की वजह से प्रायः यहाँ नहीं आ पाटा, पर आगे से ख़याल रखा जायेगा. पुनश्च आभार!

Unknown ने कहा…

Sunder ahsaas bhari rachna.... Shubhkaamnaayein aapko !!