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सोमवार, 3 नवंबर 2014

*** तुम जान रहे थे...***



धधक उठेगी
फिर तुम्हारे भीतर की
वही पुरानी आग
जिसे रक्खा है कभी
संभालकर तुमने
अपने सीने में
मेरी यादों की तरह;
कि जो जलकर भी न तपे
उसी गर्मजोशी का
मेरी मायूस मुहब्बत में
जब इक लिहाफ़- सा ख़ामोश
ज़िन्दा होना ज़िद रहा था.

गुदा हुआ तो रहा है

मेरे मर्म का हर कोना,
इश्क़ की सभी
बेपरवाही औ' रिवाज़ों से
पर मेरी जुस्त-जू में
तेरी मौजूदगी की अनचाही सीलन
इक ख़त्म होती कहानी का
हरदम ही मौन समर्पण है.

रही मैं तब भी

उन कभी न मिटने वाली
यादों की असंख्य चादरों में
समेटकर किन्हीं जज़्बातों की ख़ुश्बू,
जब तुम सोचकर भी कभी
इस राह से मुड़ोगे,
मिलूँगी तुम्हें मैं
बेमौसम पलाश की तरह
कि बिना महक के भी
भरसक तुम चिरकाल तक
मेरे लिए लाल- लाल हो जाओ.

जान रहे थे तुम  भी

मेरी बेसबब मायूसी की
उस गुमनाम ज्वाला को
कि जो चहक- चहककर भी
सीख चुकी थी ख़ामोश जीना
पर जो कभी तुमने
मेरी ख़ातिर महसूसा नहीं
उसी को अपनी
परिधि से परे जाकर
हमने इक सिद्धांत सीखा है.

करो इंतज़ार कुछ उन पलों का

जब तुम्हारा ख़याल
कुछ यूँ यकायक जी उठे
कि हाँ,
होगा उस वक़्त ही
सब बेपरवाही से ही ख़तम
तुम्हारे अंदर की सुप्त- सी
जब ज्वालामुखी भभककर जगेगी...! ***
  
            --- अमिय प्रसून मल्लिक.

(Pic courtesy- www.google.com with utmost thanks!)

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