अलग- अलग- से उन
कई एहसासों से,
मैंने तुम्हारा ख़ाका गढ़ा था,
और अपनी अंजुरि में भरकर
प्रेमामृत की बूंदों को
अपने जिए उसूलों में
इतराकर किया था उच्चारित,
की थी तब ही जाकर
तेरी रवानियों की खुलेआम चर्चा,
जो मैं सम्भल के भी
ख़ुद को समझा नहीं पाया जिसे,
कि प्रेम- कम्पन की भी
कहीं कोई भविष्यवाणी नहीं होती.
तुम्हारी यादों के भी तब
अपने कुछ उसूल रहे थे,
और रही थी
तेरी बदग़ुमानियों की
हर ओर ही बेबाक ज़िन्दादिली
जो सिसक- सिसककर भी
तुम्हारे अंदर की चाह में
मेरा रुष्ठ संसार
कोई बीज प्रस्फुटित न कर पाया.
तुम्हें याद ही होगा;
मेरी बातों में तुमने
अपना अलग संसार गढ़ा था,
और ली थी जमकर
मुझसे उधार मेरी सैकड़ों आहें,
कि ज़माने के रंगों से
तुम्हें अपना दायरा मंज़ूर कहाँ था,
और तुम्हारी फूल- सी राहों पे मैंने
तब कहाँ कभी,
होश में क़दम ही रखे थे.
वो तेरी बेरुखी हो
या कि मेरे दिवालियेपन के क़िस्से,
अपनी किताबों के हर छंद में
तुम्हें ही यहाँ
अक्षरशः उकेरा गया है.
तुम जब भटक कर आओगी
मेरे शब्द तभी चीखेंगे,
और होगा भावों के आरोहण का
तभी आम शब्दों में संवाद,
यहाँ तेरी बेबाकियों पर,
क्यूँकि अब तो
खुलेआम व्यंग्य- बज़्म लगायी गयी है.
मैं कोई कवि कहाँ
तुम्हारे मर्मभेदी बाणों के आगे,
पर सहेजकर सारी दुखती यादों संग
वहाँ पहुँचने को निकल ही तो पड़ा हूँ,
कि तुम पर लिखी जा रही,
सभी कविताओं का
इक संभ्रात- सन्दर्भ में
जहाँ उत्तिष्ठ विमोचन होना है.***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
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