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बुधवार, 27 मई 2015
*** तुमसे यादें हैं...***
आज तुम सबों को
देखा है तस्वीरों में
उसी मदमाती यादों संग
इतराकर विचरते हुए...
वो मिलन भी हमारा
कहाँ कम था
किसी मुक़म्मल मुशायरे से
जहाँ शब्दों के जाल को हमने
अचानक ही छुपाया था
अपनी मुस्कराहटों की मुट्ठी में,
और किया था ऐलान
कि कहीं न कहीं
हर शख्स की
छटपटाहटें बाक़ी रह रही हैं.
वहीँ पर हुआ था
एहसासों का खुलेआम सम्भाषण
कि कहीं सिमटकर खाली पर रात भर
किसी ने एहसासों को
उष्ण किए रखा था,
और नहीं थीं कहीं
सुबह उस अनंत उजाले की
कातर भर भी कोई झलक बेपरवाह.
गीतों का दौर तब भी था
पर हर पुकार के बाद
'सुना तुमने!', किसी ने नहीं महसूसा,
और भंगिमाओं के छद्म वेश में
हमें चाय की चुस्कियों संग ही
उजाले का आग़ाज़ स्वीकार करना पड़ा.
बुझती हुई भूखों संग
कोई भूख हर किसी की
सशक्त और प्रबल हुई थी
पर नेस्तनाबूत हर शय में
तुम्हारा समर्पण ही रहा.
मैं रहा था क़िताबों में
क़ैद उन लफ़्ज़ों तक
कि वहाँ मेरे तुम्हारे लफ़्ज़ों ने
बिना सीमांध के,
अपना नया बसेरा चुना था;
थे तुम सब ही,
उन यादों के मौजूँ मुसाफ़िर
जो हमारी रातें भी तब
कितनी दूधिया जवाँ हुई थीं
और सिरहाने पे थके हुए से
पान की मिठास का फिर घुलना हुआ था.
वो समय ही सुर्ख़ था
कि तुम सबों की आबो- हवा में
मेरा भी कोई मर्म
जग- सा गया था बेशक,
करो न याद,
उन पलों के कतरनों को
जिनको जोड़कर हमने
हम सबमें इक ज़िन्दगी जी ली थी.
किस- किसने इन लम्हों में
यादों का पिटारा सजाया
जाने किसने लगाया पहरा
वक़्त की बेसुध चाँदनी को
समेटने अपनी आगोश में;
कि न इन बातों से कभी
कोई मुहब्बत जवाँ रही है,
न एहसासों को कभी
ऐसी उधेड़बुन से कोई नाता रहा है.
बस, आते रहे हो तुम सब
हर छंद में बनकर,
कभी मेरी कविताओं का
सहमता हुआ अलंकार,
और कभी सटीक शब्दों के चुने जाने का,
बिना अर्थ गँवाए,
शब्द- बाहुल्य बने हो.***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
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1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-05-2015) को "जय माँ गंगे ..." {चर्चा अंक- 1990} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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