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बुधवार, 25 नवंबर 2015

*** बिखरते ख़्वाब ***

गड़ी हुई थीं नीन्दें मेरी,ऑफ़िस के गलियारों में,
पड़े हुए थे सपने सारे,उन रातों के अंधिया
रों में!

घर से था निकला जब, लूट मची थी सपनों की,
लाचार-सा फिर रोया मन, उजड़े और तैयारों में!

माँ कहती थी,ख़ूब बढ़ोगे तुम,दुनिया के नक्शे पर,
उलट गये वो ख़्वाब अधूरे,रोया मन फिर लाचारों में!

निपट अकेला उलझा था मैं,काम- काम में डूबा- सा,
निकल गये सब लोग-बाग, इन झूठे दोस्त- यारों में!

कमा- कमाकर जो न पाया, उसके पीछे भाग रहे,
सीखा क्यूँ न पाठ ये जमकर, चलते हुए अंगारों में!

रातें जागीं, दिन न देखा, कैसे- कैसे फिर साल रहे,
क्या मिला जो सहेजा अबतक, इन पैसों-से हत्यारों में!

कहाँ पढ़ोगे मेरी आहें, कि कौन खरीदेगा ये मरहम,
सारी जगहें दूषित हैं, यहाँ मन के अख़बारों में!

कहा था तुमसे, बिना कहे ही आ जाऊंगा मैं,
सब छोड़- छाड़कर, रोते- छूटे हुए परिवारों में.***

                 --- अमिय प्रसून मल्लिक.

1 टिप्पणी:

Rabindra Kumar Kaushik ने कहा…

वडिया, क्या खूब लिखा है