वो बहुत छोटा था
जब उसकी माँ
उसे अच्छी आयतें पढ़ाती थी...
जब उसकी माँ
उसे अच्छी आयतें पढ़ाती थी...
बड़ी तबीयत से
उसकी बूढ़ी माँ ने
उसे ज़माने की तहज़ीब सिखायी
और सिखाया था
ज़मीन पर पड़ी फ़ालतू चीज़ों से
एक मुक़म्मल ख़ाका खींचना
जिसके संभावित वजूद का
उसे ख़ुद में
कभी कोई इल्म न हुआ.
उसकी बूढ़ी माँ ने
उसे ज़माने की तहज़ीब सिखायी
और सिखाया था
ज़मीन पर पड़ी फ़ालतू चीज़ों से
एक मुक़म्मल ख़ाका खींचना
जिसके संभावित वजूद का
उसे ख़ुद में
कभी कोई इल्म न हुआ.
उसके ख़यालों से
उठनेवाली हर शिकस्त को
उसकी उसी माँ ने
ख़ून में उसके
कुछ यूँ चस्पा कर रखा था
कि उसकी हर आह
दम तोड़ते- तोड़ते
यकायक ही भभक उठती थी.
वो अपनी माँ का
अकेला बचा अरमान था
और जिसकी मातमपुर्सी
उसे अपने स्याह सपने में भी
कभी मंज़ूर न हुई.
अकेला बचा अरमान था
और जिसकी मातमपुर्सी
उसे अपने स्याह सपने में भी
कभी मंज़ूर न हुई.
उसने अपनी अकेली जूझती माँ को
कभी अकेले न होने का/ इसलिए भी
भान नहीं होने दिया
कि वो ज़माने से छीनकर
हर वाज़िब ख़ुशी को
अपनी माँ तक लाने की
बेपरवाह क़वायद में
ख़ुद को गोया समेटने निकला था.
कभी अकेले न होने का/ इसलिए भी
भान नहीं होने दिया
कि वो ज़माने से छीनकर
हर वाज़िब ख़ुशी को
अपनी माँ तक लाने की
बेपरवाह क़वायद में
ख़ुद को गोया समेटने निकला था.
उस निरीह माँ की
सिमटी हुई साँसों का भी
वो इकलौता जिम्मेवार बना रहा
और रही उफनती हुई
उसके अपने वजूद में
वही खुरदरी सी अकुलाहटें,
जिन्हें वो क्या
कोई माँ कहीं सींचती नहीं
और नहीं चाहती
अपनी कोख का
जीते- जी कोई हवन- सा करना.
सिमटी हुई साँसों का भी
वो इकलौता जिम्मेवार बना रहा
और रही उफनती हुई
उसके अपने वजूद में
वही खुरदरी सी अकुलाहटें,
जिन्हें वो क्या
कोई माँ कहीं सींचती नहीं
और नहीं चाहती
अपनी कोख का
जीते- जी कोई हवन- सा करना.
ज़मीन से सपने चुनते हुए
वो अब बारूद की ढेर पर
अपने आप में
इक सुलगता सवाल हो गया है.
वो जान लेकर ही
ख़ून और उसके रिसते रहने का
चिरकालिक मर्म देखेगा
और जिसकी सुखभ्रांति में
वो अपनी माँ की
नाभि से अपरा के विच्छेद को
समझ जाने की
भयावह सीख जनेगा.
वो अब बारूद की ढेर पर
अपने आप में
इक सुलगता सवाल हो गया है.
वो जान लेकर ही
ख़ून और उसके रिसते रहने का
चिरकालिक मर्म देखेगा
और जिसकी सुखभ्रांति में
वो अपनी माँ की
नाभि से अपरा के विच्छेद को
समझ जाने की
भयावह सीख जनेगा.
हाँ, यहीं आतंक है,
माँ के पेट से निकले
उस ख़ूबसूरत सच का,
जिसे कोई माँ
चीख- चीखकर भी
किसी आवेश में पैदा नहीं करती. ***
माँ के पेट से निकले
उस ख़ूबसूरत सच का,
जिसे कोई माँ
चीख- चीखकर भी
किसी आवेश में पैदा नहीं करती. ***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
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