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शनिवार, 3 नवंबर 2018
*** मैंने जाने दिया... ***
तुम शहर छोड़कर
जब चली गयी,
मैं निरा अकेला वहाँ सिगरेट की कशें ले रहा था।
मुझे लगा,
तुम्हारे ख़यालों में उलझकर
मैं हर चौक- चौराहे पर अपना एक ठौर बना लूंगा।
तुम्हें 'गर याद होगा,
तब,
जब मैं तुम्हें बिस्तर में क़ैद नहीं करना चाहता था,
और मेरी असंख्य सर्द रातों में
सैकड़ों झंझावात
मुझसे बेपरवाह रूबरू हो रहे थे,
मैंने तुम्हें जाने दिया...
मैंने जाने दिया कि
तेरे प्यार की अंगीठी में बेलौस
तब मेरा वर्चस्व सुलग रहा था,
और
इसी गुमान में हमारी
हज़ारों बेबस अंगड़ाइयाँ भी सेंकी गयीं।
मेरा मूक प्यार तब भी
तुम्हारे फिर नहीं 'होने' के साबूत साक्ष्य को
मिटाने में मशगूल था।
तुम्हारे चले जाने तक मेरी सारी रातें
तुम्हारी ही
बातें करती रहीं,
और तुम्हारे संग हर दिन
कभी न मिटानेवाली यादों का,
अमिट संसार गढ़ता रहा;
मैं तब भी नहीं ताड़ सका,
कि जितनी वर्जनाएँ तुमने संसार के साथ
मिलके रची हैं,
उनमें सिर्फ़ मेरा ख़ामोश प्यार ही क़ैद है।
इस शहर को
कहो, अब हुआ क्या है,
सब वही तो हैं,
फूल, पत्ती, सड़क, तारे, रात, जुगनू,
और जो नहीं है,
वो किसी चौक चौराहे पर कहीं,
तुम्हारी गंध है।
मैं उन्हीं कुछ गंधों के लिए
हर इस जगह को धुआँ- धुआँ- सा करता रहता हूँ
कि मैं आज जितना लज्जित होता जाऊँगा,
तुम सारी वर्जनाओं को तोड़कर
भरसक कोई मुकम्मल जगह बनाती चली जाओगी।
अब आज फिर मैं
तुम्हें अपने शहर में ढूँढ रहा था,
जहाँ तुम लौटकर कभी निभा सको उन्हें
जो मेरी हज़ार रातें
तुम्हारे बेतरतीब वायदों में क़ैद हैं,
पर
यहाँ उसी शहर की हर सड़क पे
तुम्हारे न 'होने' का कभी न मिटनेवाला
सन्नाटा भी पसरा हुआ था,
मैंने जब भी दुबारा प्रेम में पड़ना चाहा।***
--- © अमिय प्रसून मल्लिक.
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