*** अपाहिज़ हैं अवलोकन ***
हर दिन की तरह
नहाते हुए मैं
जब भी देखती हूँ
इस स्टूल की
एक टूटी हुई टांग
मुझे उसमे मेरी ही
छवि होने का
पुरजोर भान होता है.
तुम्हें याद ही होगा
मैं तब पेट से थी
जब इल्म नहीं रहा तुम्हें
कि उठना- बैठना भी
इक औरत के लिए ऐसे में
बड़ा ही
दुश्वार- सा हो जाता है
तब हर रोज़
एक ख़याल आता था
कि तुमसे कहूँगी,
एक स्टूल ला दो
मैं सलीके से बैठ नहीं सकती
कहीं भी सहजता से,
पर जाने क्यूँ
बह जाते थे अरमान ये भी
गुसलखाने में ही
मेरे साथ नहाते हुए.
तुम तब भी
समझ नहीं सके
कि नहीं चाहती इक औरत
और कुछ भी
अपनी प्रतिच्छाया से
सिवाय इसके कि
वो ताड़ ले
उसकी हर ज़रूरत
चाहे वो चाह
पनपी हो
उत्तेजना के उन्माद में.
जीवन का और
सच भी तो यही है
जिसे हम और हमारे अपने
उन्माद की चरम से
हँस- रोकर ही पर
सदियों से करते रहे हैं पोषित
और जिनके प्रतिफल में
आज हम दोनों भी
एकाकार हुए थे.
नहीं जान पायी पर मैं
कि हुआ क्या था
जब समय- बंधन में जकड़े
तुम अपने-आप में
रहने लगे
और मेरा बीमार मन
अपनी उदासियों संग ही
सयानेपन का चोगा पहनकर
करता रहा सदियों से
खुद में ही दंभ
कि तार- तार हो जाएगा
ये दिन भी इक दिन
नाउम्मीदी का
घना अन्धेरा समेटकर.
फिर भी,
अपनी अथक 'ड्यूटी' से
बचाकर कुछ समय
जाने कैसे ले आये थे
एक दिन तुम
ये छोटा- सा स्टूल
जिसका सुर्ख लाल रंग
लिए हुए तर्क तुम्हारा
मेरे मनपसंद होने का
गुमान जताता रहा
पर जो ज़रुरत रही
वो मेरी स्थूल काया
जिसपर सामंजस्य न बना सकी
कि जिसका 'होना', न 'होना'
अब खो चुका था
अपनी शुरूआती अहमियत.
और आज जब
मन- विकार धोते हुए
देखती हूँ ये स्टूल
खो- सा जाता है
मेरा वो ही बीमार मन
आज के जीवन- चलचित्र में
जो बहुर सारे दृश्यों का
मुस्कराकर ही सही
अब अंगीकार कर चुका है
कि नेपथ्य में जिसके
तुम्हारे स्वपनों का संभाव्य भी
लाचार- सा
दम तोड़ता रहा है.
ये सब तुम्हारे
असंख्य इच्छाओं का
माया- तंत्र ही था
कि जिनके सारे मज़बूत स्तम्भ
मेरे सहारा बनने चले थे
पर ये समय है या
गोया जीवन- धार की रफ़्तार
जो उखड़ चुका है
कुछ ही दिनों में
एक पैर तुम्हारा।
और जाने क्यूँ
मैं समझ नहीं पाती
कि ये मैं हूँ
या कि तुम्हारा स्टूल
जिसकी एकरूपता से
मैं इस बंद कमरे में
घबरा- सी उठती हूँ.
जब से दिखने लगा है
मुझे इसमें
मेरा ही रूप
जान पायी तभी मैं
इस एहसास के मर्म को
कि तुम्हारे वर्चस्व पर
अब छिछला हो चला है
मेरे सर्वस्व का भाव...
तभी घर के किसी कोने से
सुनती हूँ मैं
तुम्हारी ही पुकारू आवाज़
और धो- समेटकर सारे भाव
घबराकर निकल आती हूँ
मेरे ही बनाए हुए
तिलिस्मी गुसलखाने से बाहर।।। ***
--- अमिय प्रसून मल्लिक
1 टिप्पणी:
wah........bahut khub..
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